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________________ प्रभावना 251 प्रभावना अंगकी महिमा अपरम्पार है, हमलोग उस पर लक्ष्य नहीं देते। एक मेलेमें लाखों व्यय कर देवेंगे। पर यह न होगा कि ऐसा कार्य करें जिससे सर्वसाधारण लाभ उठा सकें। आजकल प्रायः अंग्रेजी दवाका विशेष प्रचार हो गया है। इसका मूल कारण यह है कि ऐसे औषधालय नहीं रहे जिनमें शुद्ध औषधि तैयार मिल सके। यद्यपि इसमें लाखों रुपयोंका काम है, पर समुदाय क्या नहीं कर सकता ? उत्तमसे उत्तम वैद्योंकी नियुक्तिकी जावे, शुद्ध औषधिकी सुलभता हो, ठहरने आदिके सब साधन उपलब्ध हों तो लोग अनुपसेव्य औषधिका सेवन क्यों करेंगे ? ___ एक भी विद्यालय ऐसा नहीं जिसमें सौ छात्र संस्कृत पढ़ते हों। बनारसमें एक विद्यालय है। सबसे उत्तम स्थान है। जो पण्डित अन्यत्र सौ रुपयेमें मिलेगा वहाँ वह बीस रुपयेमें मिल सकता है। प्रत्येक विषयके विद्वान् वहाँ अनायास मिल सकते हैं, पर आजतक उसका मूलधन एक लाख भी नहीं हो सका। निरन्तर अधिकारी वर्गको चिन्तित रहना पड़ता है। आज तक उस संस्थाको स्थापित हुए चालीस वर्ष हो चुके, पर कभी पचाससे अधिक छात्र उसमें नहीं रह सके। धनाभावके कारण वहाँ केवल जैन छात्रों को ही स्थान मिल पाया है। आज यदि पच्चीस रुपया छात्रवृत्ति ब्राह्मण छात्रों को दी जावे तो सहस्रों छात्र जैनधर्मके सिद्धान्तोंके पारगामी हो सकते हैं और अनायास ही धर्मका प्रचार हो सकता है। जब लोग धर्मको जान लेंगे तब अनायास उसपर चलेंगे। आत्मा स्वयं परीक्षक है, परन्तु क्या करें ? सबके पास साधन नहीं। यदि धर्मप्रचारके यथार्थ साधन मिलें तो बिना किसी प्रयत्नके धर्मप्रसार हो जावे । धर्म वस्तु कोई बाह्य पदार्थ नहीं। आत्माकी निर्मल परिणतिका नाम ही तो धर्म है। जितने जीव हैं सबमें उसकी योग्यता है, परन्तु उस योग्यताका विकास संज्ञी जीवके ही होता है। जो असंज्ञी हैं अर्थात जिनके मन नहीं उनके तो उसके विकासका कारण ही नहीं है। संज्ञी जीवोंमें एक मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जिससे उसका पूर्ण विकास हो सकता है। यही कारण है कि मनुष्य पर्याय सब पर्यायोंमें उत्तम पर्याय मानी गई है। इस पर्यायसे हम संयम धारण कर सकते हैं, अन्य पर्यायोंमें संयमकी योग्यता नहीं। पञ्चेन्द्रियोंके विषयोंसे चित्तवृत्तिको हटा लेना तथा जीवोंकी रक्षा करना ही तो संयम है। यदि इस ओर हमारा लक्ष्य हो जावे तो आज ही हमारा कल्याण हो जावे। हमारा ही क्या, समाज भरका कल्याण हो जावे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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