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________________ मेरी जीवनगाथा 252 पहले समयमें मुनिमार्गका प्रसार था, गृहस्थ लोग संसारसे विरक्त हो जाते थे और उनकी गृहिणी आर्या अर्थात् साध्वी हो जाती थीं। उनका जो परिग्रह बचता था वह अन्य लोगोंके उपभोगमें आता था तथा सहस्रों बालक अल्पावस्थामें ही त्यागी, मुनि हो जाते थे, अतः उनका विभव भी हम ही लोग भोगते थे। परन्तु आजके लोग तो मरते-मरते भोगोंसे उदास नहीं होते। उन्हें आनन्दका अनुभव कहाँ से आवे? मरते-मरते यही शब्द सुने जाते हैं कि यह बालक आपकी गोदमें है, रक्षा करना इत्यादि । यह दुरवस्था समाजकी हो रही जिनके पास पुष्कल धन है, वे अपनी इच्छाके प्रतिकूल एक पैसा भी नहीं खर्च करना चाहते ! यदि आप वास्तवमें धर्मकी प्रभावना करना चाहते हैं तो जाति-पक्षको छोड़कर प्राणिमात्रका उपकार करो। आगममें तो यहाँ तक लिखा है कि श्रीआदिनाथ भगवान् जब अपने पूर्वभवमें राजा वजजंघ थे और वज्रदन्त चक्रवर्तीके विरक्त होनेके बाद उनकी राज्यव्यवस्थाके लिये जा रहे थे तब बीचमें एक सरोवरके तट पर ठहरे थे। वहाँ उन्होंने चारण ऋद्धिधारी मुनियोंके लिए आहारदान दिया। जिस समय वे आहारदान दे रहे थे उस समय शूकर, सिंह, नकुल और वानर-ये चार जीव भी शान्त भावसे बैठे थे और आहारदान देख कर मन ही मन प्रसन्न हो रहे थे। भोजनान्तर राजा वज्रजंघने चारणमुनियोंसे प्रश्न किया कि हे मुनिराज ! यह जो चार जीव शान्त बैठे हुए हैं, इसका कारण क्या है ? उस समय मुनिराजने उनके पूर्व जन्मका वर्णन किया, जिसे सुनकर वे इतने प्रभावित हुए कि उनका अवशिष्ट जीवन धर्ममय हो गया और आयुका अवसान होने पर जहाँ राजा वज्रजंघ और उनकी रानी श्रीमतीका जन्म हुआ, वहीं पर इनका भी जन्म हुआ तथा राजाके मन्त्री, पुरोहित, सेनापति और श्रेष्ठी ये चारों जीव भी वहीं उत्पन्न हुए। पश्चात् वनजंघका जीव जब कई भवोंके बाद श्री आदिनाथ तीर्थंकर हुआ, तब वे जीव भी उन्हीं प्रभुके बाहुबलि आदि पुत्र हुए। कहनेका तात्पर्य यह है कि धर्म किसी जाति विशेषका पैतृक विभव नहीं, अपितु प्राणिमात्रका स्वभाव धर्म है। कर्मकी प्रबलतासे उसका अभावसा हो रहा है, अतः जिन्हें धर्मकी प्रभावना इष्ट है, उन्हें उचित है कि प्राणिमात्रके ऊपर दया करें । अहंबुद्धिको तिलाञ्जलि देवें। तभी धर्मकी प्रभावना हो सकती है। बाह्य उपकरणोंका प्राचुर्य धर्मका उतना साधक नहीं जितना कि आत्मपरिणतिका निर्मल होना साधक है। भूखे मनुष्यको आभूषण देना तृप्तिजनक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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