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मेरी जीवनगाथा
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तथा तीर्थयात्रा आदिमें व्यय होते हैं, परन्तु बालकोंको वास्तविक धर्मका ज्ञान हो इस ओर किसीका लक्ष्य नहीं, किसीका प्रयत्न नहीं। अस्तु, हमको क्या प्रयोजन ! केवल आपकी चेष्टा देख हमने आप लोगोंको कुछ त्रुटियोंका आभास करा दिया है। अच्छा हम जाते हैं......... ।'
हम उसकी इस खरी समालोचनासे बहुत ही प्रसन्न हुए। जिन्हें हम यह समझते हैं कि ये लोग धर्म-विरुद्ध आचरण करते हैं वे लोग भी हमारे कार्योंको देखकर हमें उत्तम नहीं मानते। कितना गया-बीता हो गया है हमारा आचरण ? वास्तवमें धर्मकी प्रभावना आचरणसे होती है। यदि हमारी प्रवृत्ति परोपकाररूप है तो लोग अनायास ही हमारे धर्मकी प्रशंसा करेंगे और यदि हमारी प्रकृति तथा आचार मलिन हैं तो किसीकी श्रद्धा हमारे धर्ममें नहीं हो सकती। यही कारण है कि अमृतचन्द्र सूरिने पुरुषार्थसिद्ध्युपायमें लिखा है
'आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव ।
दानतपोजिनपूजाविद्यातिशयैश्च जिनधर्मः ।।' निरन्तर ही रत्नत्रयरूप तेजके द्वारा आत्मा प्रभावना सहित करनेके योग्य है। तथा दान, तप, जिनपूजा, विद्याभ्यास आदि चमत्कारोंसे जिनधर्मकी प्रभावना करनी चाहिये । इसका तात्पर्य यह है कि संसारी जीव अनादि कालसे अविद्या-अन्धकारके द्वारा आच्छन्न है। उन्हें आत्मतत्त्वका ज्ञान नहीं। वे शरीरको ही आत्मा मान रहे हैं। निरन्तर उसीके पोषणमें उपयोग लगा रहे हैं तथा उसीके लिए अनुकूलमें राग और प्रतिकूलमें द्वेष करने लगते हैं। चूँकि श्रद्धाके अनुकूल ही ज्ञान और चारित्र होता है, अतः सर्व प्रथम श्रद्धाको ही निर्मल बनानेका प्रयत्न करना चाहिए। उसके निर्मल होते ही ज्ञान और चारित्रका प्रादुर्भाव अनायास हो जाता है। इसीका नाम रत्नत्रय है और यही मोक्षमार्ग है। अरे, यह तो आत्माकी निज विभूति है। जिसके हो जाती है वह संसार बन्धनसे छूट जाता है। वह भक्त कहलाने लगता है। वास्तवमें मोक्षप्राप्ति होना ही निश्चय प्रभावना है। इनकी महिमा वचनके द्वारा नहीं कही जा सकती। मोक्षका लक्षण आचार्योंने इस प्रकार लिखा है
सुखमात्यन्तिकं यत्र बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
तं वै मोक्षं बिजानीयाद् दुष्प्राप्यमकृतात्मभिः ।। जहाँ अविनाशी अतीन्द्रिय और केवल बुद्धिके द्वारा ग्रहणमें आनेवाला सुख उपलब्ध हो उसे ही मोक्ष जानना चाहिये। यह मोक्ष अकर्मण्य अथवा अकुशल मनुष्योंको दुर्लभ रहता है।
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