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________________ मेरी जीवनगाथा 248 ___ एक दिनकी बात है। बरुआसागरमें मूलचन्द्र के श्वसुरको उसके पुत्रने शिरमें लाठी मार दी, उससे सिर फूट गया और रुधिर बहने लगा। हम व मूलचन्द्र सर्राफ वहीं पर बैठे थे, केवल वचनोंसे प्रलाप करने लगे कि देखो, कैसा दुष्ट है ? पिताका शिर जर्जर कर दिया। अरे ! कोई है नहीं, इसे पकड़ो। दरोगा साहब के यहाँ पुलिसमें रिपोर्ट कर दो। पता लगेगा कि मारनेका यह फल होता है। देखो, कैसा दुष्ट है। पिता वृद्ध है। उसको उचित तो यह था कि इसको वार्धक्य अवस्थामें सेवा करता, पर वह तो दूर रही, उल्टा लाठीसे शिर जर्जरित कर दिया। हा भगवन् ! भारतमें कैसे अधम पुरुष होने लगे हैं ? यही कारण है कि यहाँ पर दुर्भिक्ष और मारीका प्रकोप बना रहता है। जहाँ पापी मनुष्यों का निवास रहता है वहाँ दुःखकी सब सामग्री रहती है.......'इत्यादि जो कुछ मनमें आया उसे वचनों द्वारा प्रकट कर हम दोनोंने सन्तोष कर लिया। पर यह न हुआ कि उस वृद्धकी कुछ सेवा करते। इतनेमें क्या देखते हैं कि एक मनुष्य जो वहाँ भीड़में खड़ा हुआ था, एकदम दौड़ा हुआ अपने घर गया और शीघ्र ही कुछ सामान लेकर वहाँ आ गया। उसने जलसे उस वृद्धका शरीर धोया और घावके ऊपर एक बोतलमेंसे कुछ दवाई डाली। पश्चात् एक रेशमका टुकड़ा जलाकर शिरमें भर दिया। फिर एक पट्टी शिरमें बाँध दी। साथमें दो आदमी लाया था, उनके द्वारा उस वृद्धको उसके घर पहुंचा दिया। भीड़में खड़े हुए पचासों आदमी उसकी इस सेवावृत्तिकी प्रशंसा करने लगे। ___ हम लोगोंने उससे पूछा-'भाई ! आप कौन हैं ? वह बोला 'इससे आपको क्या प्रयोजन ? हम कोई रहें, आपके काम तो आये। फिर हमने आग्रहसे पूछा-'जरा बतलाइये तो कौन हैं ?' उसने कहा-'हम एक हिन्दूके बालक हैं। ईसाई धर्म में हमारी दीक्षा हुई है। हमारा बाप जातिका कोरी था। इसी गाँवका रहनेवाला था। जब दुर्भिक्ष पड़ा और हमारे बापकी किसीने परवरिश न की, तब लाचार होकर उसने ईसाई धर्म अंगीकार कर लिया। हमारी माँ अब भी सीतारामका स्मरण करती है। हमारी भी रुचि हिन्दू धर्मसे हटी नहीं है। परन्त खेद है आप तो जैनी हैं, पानी छानकर पीते हैं, रात्रि-भोजन नहीं करते, किसी जीवका वध न हो जावे, इसलिए चुग चुगकर अन्न खाते हैं, कण्डा नहीं जलाते 'क्योंकि उसमें जीवराशि होती है, खटमल होने पर खटिया घाममें नहीं डालते और किसी स्त्रीके शिरमें जुवाँ हो जावें तो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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