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प्रभावना
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उपदेश देकर सन्मार्गकी प्रभावना करना महान धर्म है। परन्तु हमारी दृष्टि उस ओर नहीं जाती। धर्मका स्वरूप तो दया है। वे भी तो हमारे भाई हैं जो कि उपदेशके अभावमें कुमार्गगामी हो गये हैं। यदि हमारा लक्ष्य होता तो उनका कुमार्गसे सुमार्गपर आना क्या दुर्लभ था। वे संज्ञी हैं, मनुष्य हैं, साक्षर हैं, बुद्धिमान हैं फिर भी सदुपदेशके अभावमें आज उनकी यह दुर्दशा हो रही है। यदि उन्हें सदुपदेशका लाभ हो तो उनका सुधरना कठिन बात नहीं। परन्तु उस ओर हमारी दृष्टि जाती ही नहीं। अन्यकी कथा छोड़िये। देहातमें जिन जैन लोगोंका निवास है उन्हें जैनधर्मके परिचय करानेका कोई साधन नहीं है। जो उपदेशक हैं वे उन्हीं बड़े-बड़े शहरोंमें जाते हैं जहाँ कि सवारी आदिके पुष्कल सुभीते होते हैं । अथवा देहातकी बात जाने दीजिये, तीर्थस्थानों पर भी शास्त्रप्रवचनका कोई योग्य प्रबन्ध नहीं। केवल पूजन-पाठसे ही मनुष्य सन्तोष कर लेते हैं। सबसे महान् तीर्थ गिरिराज सम्मेदाचल है जहाँसे अनन्तानन्त प्राणी मोक्षलाभ कर चुके। परन्तु वहाँ पर भी कोई ऐसा विद्वान् नहीं जो जनताको मार्मिक शब्दोंमें क्षेत्रका माहात्म्य समझा सके । जहाँ पर हजारों रुपये मासिकका व्यय है वहाँ पर ज्ञानदानका कोई साधन नहीं।
जिस समय श्रीशान्तिसागर महाराजका वहाँ शुभागमन हुआ था उस समय वहाँ एक लाखसे भी अधिक जनताका जमाव हुआ था। भारतवर्ष भरके धनाढ्य, विद्वान् तथा साधारण मनुष्य उस समारोहमें थे। पण्डितोंके मार्मिक तत्त्वोंपर बड़े-बड़े व्याख्यान हुए थे। महासभा, तीर्थक्षेत्र कमेटी आदिके अधिवेशन हुए थे, कोठियोंमें भरपूर आमदनी हुई, लाखों रुपये रेलवे कम्पनी ने कमाये और लाखों ही रुपये मोटरकार तथा बैलगाड़ियोंमें गये। परन्तु सर्वदाके लिये कोई स्थायी कार्य नहीं हुआ। क्या उस समय दश लाखकी पूँजीसे एक ऐसी संस्थाका खोला जाना दुर्लभ था, जिसमें कि उस प्रान्तके भीलोंके हजारों बालक जैनधर्मकी शिक्षा पाते, हजारों गरीबोंके लिए औषधिका प्रबन्ध होता और हजारों मनुष्य आजीविकाके साधन प्राप्त करते । परन्तु यह तो स्वप्नकी वार्ता है, क्योंकि हमारी दृष्टि इन कार्योंको व्यर्थ समझ रही है। यह कलिकालका माहात्म्य है कि हम द्रव्य-व्यय करके भी उसके यथेष्ट लाभसे वञ्चित रहते हैं। ईसाई धर्मवालोंको देखिये, उन्होंने अपनी कर्तव्यपटुतासे लाखों आदमियोंको ईसाई धर्ममें दीक्षित कर लिया। हम यहाँ पर उस धर्मकी समीक्षा करते, परन्तु यह निश्चित है कि वह धर्म भारतवर्षका नहीं, उसका चलानेवाला यूरोपका था।
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