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________________ 246 मेरी जीवनगाथा ग्राममें मन्दिर और मूर्तियोंकी प्रचुरता है, यदि वहाँ पर मन्दिर न बनवाया जाय तथा गजरथ न चलाया जावे तो कोई हानि नहीं। वही द्रव्य दरिद्र लोगोंके स्थितीकरणमें लगाया जावे, बालकोंको शिक्षित बनाया जावे, धर्मका यथार्थ स्वरूप समझाकर लोगोंकी धर्ममें यथार्थ प्रवृत्ति करायी जावे, प्रचीन शास्त्रोंकी रक्षा की जावे, प्राचीन मन्दिरोंका जीर्णोद्धार कराया जावे या सब विकल्प छोड़ यथायोग्य विभागके द्वारा साधर्मी भाइयोंको धर्मसाधनमें लगाया जावे तो क्या धर्म नहीं हो सकता ? 1 प्रभावना दो तरहसे होती है - एक तो पुष्कल द्रव्यको व्ययकर गजरथ चलाना, पचासों हजार मनुष्योंको भोजन देना, संगीत मंडलीके द्वारा गान कराना और उसके द्वारा सहस्रों नर-नारियोंके मनमें जैनधर्मकी प्राचीनताके साथ-साथ वास्तविक कल्याणका मार्ग प्रकट कर देना..... यह प्रभावना है । प्राचीन समयमें लोग इसी प्रकारकी प्रभावना करते थे । परन्तु इस समय इस तरहकी प्रभावनाकी आवश्यकता नहीं है । और दूसरी प्रभावना यह है कि जिसकी लोग आज अत्यन्त आवश्यकता बतलाते हैं । वह यह कि हजारों दरिद्रोंको भोजन देना, अनाथोंको वस्त्र देना, प्रत्येक ऋतुके अनुकूल व्यवस्था करना, अन्नक्षेत्र खुलवाना, गर्मी के दिनों में पानी पीनेका प्रबन्ध करना, आजीविका-विहीन मनुष्योंको आजीविकासे लगाना, शुद्ध औषधियोंकी व्यवस्था करना, स्थान-स्थानपर ऋतुओंके अनुकूल धर्मशालाएँ बनवाना और लोगोंका अज्ञान दूरकर उनके सम्यग्ज्ञानका प्रचार करना । श्रीसमन्तभद्र स्वामीने प्रभावनाका यह लक्षण बतलाया है Jain Education International 'अज्ञानतिमिरयाप्तिमपाकृत्य यथायथम् । जिनशासनमाहात्म्यप्रकाशः स्यात्प्रभावना ।।' अर्थात् अज्ञानान्धकारसे जगत् आच्छन्न है। उसे जैसे बने वैसे दूरकर जिन शासनका माहात्म्य फैलाना सो प्रभावना है। आज मोहान्धकारसे जगत् व्याप्त है । उसे यह पता नहीं कि हम कौन हैं ? हमारा कर्त्तव्य क्या है ? प्रथम तो जगत्के प्राणी स्वयं अज्ञानी है। दूसरे मिथ्या उपदेशोंके द्वारा आत्मज्ञानसे वंचित कराये जाते हैं । भारतवर्षमें करोड़ों आदमी देवीको बलिदान कर धर्म मानते। जहाँ देवीकी मूर्ति होती है वहाँ दशहरा के दिन सहस्रों बकरोंकी बलि हो जाती है । रुधिरके पनारे बहने लगते हैं। हजारों महिषोंका प्राणघात हो जाता है। यह प्रथा नेपालमें है । कलकत्तामें भी कालीजीके सम्मुख बड़े-बड़े विद्वान् लोग इस कृत्यके करनेमें धर्म समझते हैं। उन्हें जहाँ तक बने सन्मार्गका 1 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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