SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मेरी जीवनगाथा 244 कमण्डलु बालुका-पुञ्जसे ढककर गोता लगानेके लिये चले गये। दूसरे लोगोंने देखाकि महाराज बालूका ढेर लगाकर गंगास्नानके लिए गये हैं, अतः हमको यही करना चाहिये। फिर क्या था ? हजारों आदमियोंने बालूके ढेर लगाकर गंगा-स्नान किये। जब साधु महाराज गंगाजीसे निकले तो क्या देखते हैं कि हजारों बालूके ढेर लगे हुए हैं, कहाँ कमण्डलु खोजें ? उस समय वह बड़े निर्वेदसे बोले कि 'गतानुगतिको लोकः'-अतः तू हठ छोड़ दे कि यहाँ यही एक उत्तम साधु है। सैकड़ों एक-से-एक बढ़कर साधु आये हुए हैं। तू उन्हें दान देकर अपनी इच्छा पूर्ण कर और पापसे मुक्त हो। हमारा आशीर्वाद ही बहुत है। मैं तो तेरा भोजन नहीं कर सकता हूँ।' साधु महाराजकी उपेक्षापूर्ण बात सुनकर वेश्याकी और भी अधिक भक्ति हो गई। वह बोली-'महाराज ! मैं तो आपको ही महात्मा समझती हूँ। आशा है, मेरी कामना विफल न होगी। जब जैसाको तैसा मिलता है तभी काम बनता है। किसी कवि ने ठीक ही कहा है 'उत्तमसे उत्तम मिले मिले नीच से नीच। पानीसे पानी मिले मिले कीचसे कीच।।' साधुने कहा-'ठीक, परन्तु तेरे भोजनसे मेरी तपस्या भंग हो जावेगी और मैं वेश्याका अन्न खानेसे फिर तपस्या करनेका पात्र भी न रहूँगा। शुद्ध होनेके लिए मुझे स्वयं एक ब्राह्मण साधुको भोजन कराना पड़ेगा, जिसमें एक लाख रुपयेकी आवश्यकता पड़ेगी। मैं किसीसे याचना तो करता नहीं। यदि तेरा सावकाश हो तो जो तेरी इच्छा हो सो कर। मेरी इच्छा नहीं कि तुझे इतना व्यय कर शुद्ध होना पड़े। उसने कहा-'महाराज ! रुपयों की कोई चिन्ता नहीं। पापका पैसा है, यदि सुकृतमें लग जावे तो अच्छा है।' अच्छा तो संकल्प पढूँ ?' महाराजने दबी जबानसे कहा और उसने उसी समय एक लाख नोट उनके सामने रख दिये। महाराजने मन ही मन संकल्प पढ़ा और कहा-'ला खीर और खाँड़ भोजन कर लूँ।' वेश्या ने बड़ी प्रसन्नताके साथ खीर और खाँड़ समर्पित कर दी। साधु महाराजने आनन्दसे भोजन किया और कुछ प्रसाद उसे भी दे दिया। वेश्या मन ही मन बहुत प्रसन्न हुई और कहने लगी कि रुपया तो हाथका मैल है, फिर हो जायगा पर पापसे शुद्ध तो हुई। अन्तमें महाराजको धन्यवाद देकर जब वह जाने लगी तब महाराजने अपने असली भाँडका रूप धारणकर यह दोहा पढ़ा- गंगाजीके घाट पर ....... समझे। उस भिखमंगेने कहा कि 'यही हाल आप लोगोंके धन उपार्जन का है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy