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________________ भिक्षा से शिक्षा 243 निश्चल बने रहे। अन्तमें वेश्याने कहा-'महाराज ! धन्य है आपकी तपस्याको और धन्य है आपकी ईश्वरभक्तिको। अब भी इस कलिकालमें आप जैसे नररत्नोंसे इस वसुन्धराकी महिमा है। मैं बारम्बार आपको नमस्कार करती हूँ। मैं वह हूँ जिसने सैंकड़ों घरोंके लड़कोंको कुमार्गमें लगा दिया और सैंकड़ोंको दरिद्र बना दिया। अब आपके सामने उन पापोंकी निन्दा करती हूँ। यदि आपकी समाधि खुलती और आप मेरा निमन्त्रण अंगीकार करते तो मेरा भी कल्याण हो जाता।' इतना कहकर वेश्या चली गई। महाराजके मनमें पानी आ गया। उन्होंने मन-ही-मन कहा-'अच्छा बनाव बना। आधा घण्टा बाद वेश्या फिर आ गई और पहले ही के समान नमस्कारादि करने लगी। उसकी भक्ति देखकर महाराज अपनी समाधि अब अधिक देर तक कायम न रख सके। समाधि तोड़कर आशीर्वाद देते हैं-'तुम्हारा कल्याण हो। साथ ही हाथ ऊपर उठाकर कहने लगे कि 'हम अपने दिव्य ज्ञानसे तुम्हारे हृदयकी बात जान गये। तू अमुक गाँवकी रहनेवाली वेश्या है। तूने युवावस्थामें बहुत पाप किये, पर अब वृद्धावस्थामें धर्मके विचार हो गये हैं। तू यहाँ किसी साधुको खीर खॉडका भोजन कराने आई है। तेरा विश्वास है कि साधुको भोजन देनेसे मेरे पाप छूट जावेंगे और मेरी परलोकमें सद्गति होगी। यहाँ पर कुम्भका मेला है। हजारों साधु-ब्राह्मण आये हैं। तू यद्यपि उन्हें दान दे सकती है पर तेरी यह दृष्टि हो गई है कि मेरा-सा साधु यहाँ नहीं है। सो ठीक है, परन्तु मैं तो कोई साधु नहीं, केवल इस वेशमें बैठा हूँ जिससे तुझे साधु-सा मालूम होता हूँ। देख, सामने सैकड़ों दोना मिठाई और सैकड़ों फूलों की मालाएँ पड़ी हुई हैं, पर मैं कितना खा सकता हूँ ? लोक अविवेकी हैं, बिना विचारे ही यह मिठाई चढ़ा गये। यदि विवेक होता तो किसी गरीब को देते। इन लोगोंने यह भी विचार नहीं किया कि यह साधु इन सैकड़ों फूलोंकी मालाओंका क्या करेगा ? परन्तु लोग तो भेड़ियाधसानका अनुकरण करते हैं। व्यासजीने ठीक ही कहा है 'गतानुगतिको लोको न लोकः पारमार्थिकः । बालुकापुञ्जमात्रेण गतं मे ताम्रभाजनम्।।' इसका यह तात्पर्य है कि एक बार एक ऋषि गंगा स्नान करने के लिए गया। चूंकि भीड़ बहुत थी, अतः विचार किया कि यदि तटपर कमण्डलु रखकर गोता लगाता रहता हूँ और तब तक कोई कमण्डलु ले जाय तो क्या करूँगा ? ऋषिको तत्काल एक उपाय सूझा और उसके फलस्वरूप अपना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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