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________________ मेरी जीवनगाथा 242 कर दिया। यदि वैष्णव सम्प्रदायमें धन हुआ तो शिवालय बनवा दिया, राम-मन्दिर बनवा दिया या साधुमण्डलीको भोज दे दिया। आप लोगोंने यह कभी विचार नहीं किया कि जातिमें कितने परिवार आजीविका-विहीन हैं, कितने बालक आजीविकाके बिना यहाँ-वहाँ घूम रहे हैं और कितनी विधवाएँ आजीविकाके बिना आह-आह करके आयु पूर्ण कर रही हैं। असलमें बात यह है कि आप लोग न्यायसे द्रव्य उपार्जन नहीं करते, अन्यथा आपके धनका इतना दुरुपयोग न होता। किसी कविने ठीक कहा है 'गंगाजीके घाट पर खाई खीर अरु खाँड। योंका धन यों ही गया तुम वेश्या हम भाँड।।' शायद इसका तात्पर्य आप न समझे होंगे। तात्पर्य यह है कि एक वेश्याने आजन्म व्यभिचारसे पैसा उपार्जन किया। अन्तमें उसे दानकी सूझी। उसने विचारा कि मैंने जन्म भर बहुत पाप किया अब अन्तमें कुछ दान-पुण्य अवश्य करना चाहिये। ऐसा विचार कर उसने प्रयागके लिये प्रयाण किया। कुम्भका मेला था। लाखों यात्रीगण स्नानके लिये जा रहे थे। उस वेश्याको देखकर एक भाँडने विचार किया कि 'देखो हजारों चूहे खाकर बिल्ली हज्जको जा रही है।' मैं तो आज इसे अपना प्रभाव दिखा कर मोहित करूँगा? ऐसा विचार कर वह भाँड साधुका वेष बना कर घाट पर निश्चल आसनसे आँख मूंदकर ईश्वरका भजन करने लगा। उसने ऐसी मुद्रा धारण की कि देखनेवाले बिना नमस्कार किये नहीं जाते थे। कोई-कोई तो बीस-बीस मिनट तक साधु महाराजकी स्तुतिकर अपने आपको कृतकृत्य समझते थे और जब वहाँसे जाते थे तब साधु महाराजकी प्रशंसा करते हुए अपनेको धन्य समझते थे। महाराजके सामने पुष्पोंका ढेर लग गया। सेरों मिठाईके दोने चढ़ गये। इतनेमें वह वेश्या वहाँ पहुँची और महाराजकी मुद्रा देखकर मोहित हो गई। धन्य मेरे भाग्य कि इस कालमें भी ऐसे महात्माके दर्शन मिल गये। कैसी सुन्दर मुद्रा है ? मानों शान्तिके अवतार ही हैं। महाराज.......इत्यादि शब्दों द्वारा महाराजकी प्रशंसा करने लगी। महाराजने वेश्याको देखकर एकदम साँस रोक ली और पत्थरकी मूर्तिकी तरह निश्चल हो गये। वेश्या घूमघाम कर फिर आई और महाराजको निश्चल देखकर दस मिनट खड़ी रही। अनन्तर मन-ही-मन विचारने लगी कि यदि महाराज मेरे यहाँ भोजन कर लें तो मैं जन्म भरके पापसे मुक्त हो जाऊँगी, परन्तु कोई पटरी नहीं बैठी। तर्क-वितर्क करती हुई सामने खड़ी रही और महाराज उसी प्रकार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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