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________________ भिक्षा से शिक्षा 241 तुम्हारेसे बीसों उल्लू हमको देनेवाले हैं। हममें माँगनेका वह पुरुषार्थ है कि माँगकर दस आदमियोंको खिला सकते हैं। अब आप एक शिक्षा हमारी मानना। वह यह कि केवल ऊपरी वेष देखकर ठगा न जाना। 'दया करना धर्म है' यह ठीक है, क्योंकि सर्वमतवाले इसे अपने-अपने शास्त्रोंमें पाते हैं। परन्तु यह समझना कठिन है कि यह दया का पात्र है। तुम लोग शास्त्र मात्र पढ़ लेते हो, परन्तु शास्त्र-प्रतिपाद्य विषयमें निपुण नहीं होते। जैसे मैंने आपको ठग लिया। अथवा मैं तो उपलक्षण हूँ| अभी दो घण्टा बाद एक लूला यहाँसे निकलेगा। मैं देखता हूँ कि आपकी माताजी उसे प्रतिदिन एक रोटी देती हैं, परन्तु आपको नहीं मालूम, उसके पास क्या है ? उसके पास २०००) की नकदी है और इतने पर भी वह माँगता है। यह भारतदेश है। इसमें धर्मके नामपर मनुष्योंने प्राणतक न्यौछावर कर दिये, परन्तु अब यहाँके मनुष्योंमें विवेककी मात्रा घटती जाती है। पात्र-अपात्र का विचार उठता जाता है। सैकड़ों ऐसे परिवार हैं कि जिनकी रक्षा करनी चाहिए पर उनकी ओर दान देनेवालोंकी दृष्टि नहीं। अन्धे-लूलोंको देखकर आप लोगोंका दयाका स्रोत उमड़ पड़ता है, इतना विवेक नहीं रहता कि इनके रहनेके स्थान भी देखें। वहाँ ये क्या-क्या बातें करते हैं, यह आप लोग नहीं जानते। मैं जहाँ रहता हूँ वहाँ पर बहुतसे दरिद्र भिखमंगोंका निवास है। उनमें कोई भी ऐसा अभागा मँगता होगा, जिसके कि पास द्रव्य न हो। प्रत्येकके पास कुछ न कुछ रुपया होगा। खानेकी सामग्री तो एक मास तककी होगी। आप लोग हमारी दशा देखकर वस्त्रादि देते हैं पर जो नवीन वस्त्र मिलता हैं उसे हम बेच देते हैं, चाहे एक रुपयोंके स्थानमें चार आना ही क्यों न मिले? हमारा क्या गया, जो मिला सो ही भला। यही कारण है कि भारतमें भिखमंगे बढ़ते जाते हैं। आप लोग यदि विवेकसे काम लेते तो जो परिवार वास्तवमें दरिद्र हैं, जिनके बालक मारे-मारे फिरते हैं उनका पोषण करते, उन्हें शिक्षित बनाते, व्यापार-नौकरीसे लगाते, परन्तु वह तो दूर रहा, आप अयोग्य आदमियोंको दान देकर भिखमंगोंकी संख्या बढ़ा रहे हैं। जब बिना कुछ किये ही हम लोगोंको आपकी उदारतासे बहुत कुछ मिल जाता है तब हमें काम करनेकी क्या आवश्यकता है। भारतवर्षमें अकर्मण्यता इन्हीं अविवेकी दानवीरोंकी बदौलत ही तो अपना स्थान बनाये हुए है। आप लोगोंके पास जो द्रव्य है उसका उपयोग या तो आप हमारे लिए दान देकर करते हैं या अधिक भाव हुए तो मन्दिर बनवा दिया या संघ निकाल दिया या अन्य कुछ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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