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________________ 240 मेरी जीवनगाथा 1 आज दही खानेकी इच्छा है।' बाईजीने एक कटोरामें दही दे दिया। वे घर ले गये, शामको कटोरा और दो आना पैसे दे गये । बाईजीने कहा- 'भैया ! दो आने पैसे किसलिये रक्खे हैं ?' उन्होंने कहा- 'यह दहीकी कीमत है ।' बाईजीने कहा- 'क्या मैंने पैसेके लिये दही दिया था ?' उन्होंने कहा - 'तो क्या मुफ्त में माँगने आया था ? मुफ्तकी चीज हमेशा तो नहीं मिलती।' बाईजी चुप हो रहीं । मैं उनके इस स्पष्ट व्यवहारसे बहुत विस्मित हुआ, अस्तु । यह दूसरी बात है - एक दिन मैं भोजन कर रहा था। इतनेमें एक भिखमंगा आया और गिड़गिड़ा कर माँगने लगा। मुझसे भोजन नहीं किया गया। मैंने दो रोटी और कढ़ी लेकर उसे दी तथा पानी पिलाया । पानी पीते समय उसका कपड़ा उधड़ गया, जिससे उसका पेट भरा हुआ दिखाई दिया। मैंने कहा- 'इतने करुण स्वरमें क्यों माँगते हो ? तुम्हारे पेटके देखनेसे तो मालूम होता है कि तुम भूखे नहीं हो । शब्दोंसे अवश्य ऐसा लगता है कि तुम आठ दिनके बुभुक्षित हो ।' वह बोला- 'यदि इस तरह न माँगा जावे तो कौन साला देवे ?' मैं उसके शब्द सुनकर एकदम कुपित हो गया, परन्तु यह सोचकर शान्त रह गया कि भिखमंगा है। यदि इसे डांटता हूँ तो पचास गालियाँ सुनावेगा । नीचके मुँह लगना अच्छा नहीं । मैंने नम्र शब्दोंमें उससे कहा- 'भाई ! क्षमा करो, हम भूल गये । परन्तु यह तो बताओ कि आपके पास कितना रुपया है ?' वह बोला- 'वर्णीजी ! आप बड़े भोलेभाले हो । अरे हम तो भिक्षुक हैं, टुकड़ा माँगकर उदर पोषण करते हैं, हमारे पास क्या व्यापार है, जिससे रुपया आवे ।' मैंने कहा- 'आप ठीक कहते हैं, परन्तु हम ऐसा सुनते हैं कि भिखमंगों के पास गुदड़ियोंमें हजारों रुपये रहते हैं।' वह बोला- 'यह तो सरासर सफेद झूठ है। सैकड़ों रह सकते हैं, परन्तु इस चर्चामें क्या है ? अथवा आप पूछना ही चाहते हैं तो सुनो- 'मेरे पास १००) नकद, एक जोड़ी चूड़ा और १० सेर गेहूँ चावल आदिका संग्रह है । इसके अतिरिक्त एक स्त्री भी है, जिसकी उमर ४० वर्षकी है।' मैंने कहा - 'स्त्री कहाँसे आई ?' वह बोला- आप बड़े भोले हो । जैसे भिखमंगे हैं वैसे वह भिखमंगी है। आप कुछ नहीं समझते। संसारमें बड़ी दुर्घटनाएँ होती हैं।' मैंने कहा- 'जब कि तुम्हारे पास इतनी सामग्री है तब इस प्रकार भीख क्यों माँगते हो ?' वह बोला- 'देखो, फिर वही बात ? यदि इस तरहसे न माँगे तो कौन साला देवे ?' मैंने कहा- 'जाइये।' वह बोला- 'जाते हैं।' केवल तुम्हारा ही घर है क्या ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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