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मेरी जीवनगाथा
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बलभद्र जैसे यदुपुंगव भगवान् नेमिनाथकी समवसरणसभामें बड़ी नम्रताके साथ उनके पवित्र उपदेश श्रवण करते थे। यह वही गिरिनगर है जिसकी गुहामें आसीन होकर श्री धरसेन आचार्यने पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्यके लिए षट्खण्डागमका पारायण कराया था।
__ मन्दिरसे निकलकर श्वेताम्बर मन्दिरमें जानेका विचार किया। यद्यपि राजधर वरयाने कहा कि पञ्चम टोंकपर चलो, जहाँ कि श्री नेमिनाथका निर्वाण हुआ है, तो भी देखनेकी उत्कट अभिलाषासे हम और पण्डित मुन्नालालजी श्वेताम्बर मन्दिरमें चले गये। मन्दिर बहुत विशाल है। एक धर्मशाला भी वहीं है, जिनमें कि सब प्रकार की सुविधाएँ है। खाने-पीनेका भी पूर्ण प्रबन्ध है। यहाँपर यदि कोई साधर्मी भाई धर्म साधनके लिए रहना चाहे तो व्यग्रता नहीं हो सकती। सुविधाकी दृष्टिसे यह सब ठीक है, परन्तु यह पञ्चम काल है। तपोभूमि भोगभूमि बना दी गई है। मन्दिर गये और श्रीनेमिप्रभुकी मूर्ति देखी। ऐसा प्रत्यय हुआ जैसे कोई राजा बैठे हों। हाथोंमें सुवर्णके जड़ाऊ कटक, मस्तकमें कीमती मुकुट, अंगमें बहुमूल्य अंगी, कण्ठमें पुष्पादिसे सुसज्जित बहुमूल्य हार तथा इत्रोंसे सुचर्चित कितना शृंगार था, हम वर्णन नहीं कर सकते।
मनमें आया कि देखो इतना सब विभव होकर भी भगवान् संसारसे विरक्त हो गये। यदि उस मूर्तिके साथ दैगम्बरी दीक्षाकी मूर्ति भी होती तो संसारकी असारताका परिज्ञान करनेवालोंको बहुत शीघ्र परिज्ञान हो जाता । परन्तु यहाँ तो पक्षपातका इतना प्रभाव है कि दिगम्बर मुद्राको देख भी नहीं सकते । संसारमें यदि यह हठ न होती तो इतने मतोंकी सृष्टि न होती।
वहाँ से चलकर पञ्चम टोंकपर पहुँचे। वहाँ जो पूजाका स्थान है उसे वैष्णव लोग दत्तात्रेय कहकर पूजते हैं, कितने ही आदम बाबा कहकर अर्चा करते हैं और दिगम्बर सम्प्रदायवाले श्री नेमिनाथ स्वामीकी निर्वाणभूमि मानकर पूजते हैं। स्थान अत्यन्त पवित्र और वैराग्यका कारण है। परन्तु यहाँ तो केवल स्थानकी पूजा और नेमिप्रभुका कुछ गुणगान कर लौटनेकी चिन्ता हो जाती है।
वहाँसे चलकर बीचमें एक वैष्णव मन्दिर मिलता है, जिसमें साधु लोग रहते हैं। पचासों गाय आदिका परिग्रह उनके पास है। श्रीरामके उपासक हैं। वहाँसे चलकर सहस्राम्रवनमें आये, जो पहाड़ीसे नीचे तलमें है। जहाँ सहस्रों आमके वृक्ष हैं। बहुत ही रम्य और एकान्त स्थान है। आधा घण्टा रहकर
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