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________________ श्री गिरिनार यात्रा 237 हम जग गये और वकील साहबको धन्यवाद देने लगे। उन्होंने कहा कि इसमें धन्यवादकी आवश्यकता नहीं। यह तो हमारा कर्तव्य ही था। यदि आज हमारा भारतवर्ष अपने कर्तव्यका पालन करने लग जावे तो इसकी दुरवस्था अनायास ही दूर हो जावे, परन्तु यही होना कठिन है। अन्तमें वकील साहब चले गये और हम लोग प्रातःकाल झूनागढ़ पहुँच गये। स्टेशनसे धर्मशालामें गये। प्रातःकालकी सामायिकादिसे निश्चिन्त होकर मन्दिर गये और श्रीनेमिनाथ स्वामी के दर्शन कर तृप्त हो गये। प्रभुका जीवनचरित्र स्मरण कर हृदयमें एकदम स्फूर्ति आ गई और मनमें आया कि हे प्रभो ! ऐसा दिन कब आवेगा जब हम लोग आपके पथका अनुकरण कर सकेगें। आपको धन्य है। आपने अपने हृदयमें सांसारिक विषयसुखकी आकांक्षाके लिए स्थान नहीं दिया। प्रत्युत अनित्यादि भावनाओंका चिन्तवन किया। उसी समय लौकान्तिक देवीने अपना नियोग साधन कर आपकी स्तुतिकी और आपने दैगम्बरी दीक्षा धारण कर अनन्त प्राणियोंका उपकार किया .....इत्यादि चिन्तवन करते हुए हम लोगोंने दो घण्टा मन्दिरमें बिताये। अनन्तर धर्मशालामें आकर भोजनादिसे निवृत्त हुए। फिर मध्याह्न की सामायिक कर गिरिनार पर्वतकी तलहटीमें चले गये। प्रातःकाल तीन बजेसे वन्दनाके लिए चले और छ: बजते-बजते पर्वत पर पहुँच गये। वहाँ पर श्रीनेमिप्रभुके मन्दिरमें सामायिकादि कर पूजन-विधान किया। मूर्ति बहुत ही सुभग तथा चित्ताकर्षक है। __गिरिनार पर्वत समधरातलसे बहुत ऊँचा है। बड़ी-बड़ी चट्टानों के बीच सीढ़ियाँ लगाकर मार्ग सुगम बनाया गया है। कितनी ही चोटियाँ तो इतनी ऊँची हैं कि उनसे मेघमण्डल नीचे रह जाता है और ऊपरसे नीचेकी ओर देखनेपर ऐसा लगता है मानो मेघ नहीं समुद्र भरा है। कभी-कभी वायु आघात पाकर काले-काले मेघोंकी टुकड़ियाँ पाससे ही निकल जाती हैं, जिससे ऐसा मालूम देता है मानो भक्तजनोंके पापपुञ्ज ही भगवाद्भक्तिरूपी छेनीसे छिन्न-भिन्न होकर इधर-उधर उड़ रहे हों। ऊपर अनन्त आकाश और चारों ओर क्षितिज पर्यन्त फैली हुई वृक्षोंकी हरीतिमा देखकर मन मोहित हो जाता है। यह वही गिरिनार है, जिसकी उत्तुंग चोटियोंसे कोटि-कोटि मुनियोंने निर्वाणधाम प्राप्त किया है। यह वही गिरिनार है जिसकी कन्दराओंमें राजुल जैसी सती आर्याओंने घनघोर तपश्चरण किया है। यह वही गिरिनार है जहाँ कृष्ण और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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