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________________ 236 मेरी जीवनगाथा | इसके बाद मैंने कहा कि 'मुझे निद्रा आती है, अतः कृपा कर आप अपने स्थानपर पधारिये । आपके सद्भावमें मैं लेट नहीं सकता। आप एक वकील हैं, पर कहने में आपको जरा भी कष्ट न होगा, झट कह उठोगे कि देखो यह लोग धार्मिक कहलाते हैं और हमारे बैठे हुए सो गये, यही असभ्यता इन लोगोंमें है।' वकील साहब बोले- 'आप सो जाइये, मैं किस प्रकृतिका मनुष्य हूँ, आपको थोड़ी देर में पता लग जायेगा । सभ्यता - असभ्यता विद्यासे नहीं जानी जाती । मेरा तो यह सिद्धान्त व अनुभव है कि चाहे संस्कृतका विद्वान् हो, चाहे भाषाका हो और चाहे अंग्रेजीका डाक्टर हो, जो सदाचारी है वह सभ्य है और जो असदाचारी है वह असभ्य है । अन्य कथा जाने दीजिये, जो अपढ़ होकर भी सदाचारी हैं वे सभ्यगणनामें गिननेके योग्य हैं और जो सर्व विद्याओंके पारगामी होकर सदाचारसे रिक्त हैं वे असभ्य हैं।' वकील साहबकी विवेकपूर्ण बात सुनकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ और मेरे मनमें विचार आया कि आत्माकी अनन्त शक्ति है । न जाने किस आत्मामें उसके गुणों का विकास हो जावे। यह कोई नियम नहीं कि अमुक जातिमें ही सदाचारी हों, अमुकमें नहीं। मैंने कहा - 'महाशय ! मैं आपके इस सुन्दर विचारसे सहमत हूँ। अब मैं लेटता हूँ। अपराधको क्षमा करना... इतना कह कर मैं लेट गया। चूँकि ज्वर था ही, अतः पैरोंमें तीव्र वेदना थी । मनमें ऐसी कल्पना होती थी कि यदि नाई मिलता तो अभी मालिस करवा लेता। एक कल्पना यह भी होती थी कि वरयाजीसे कहूँ कि मेरे पैरोंमें बड़ी वेदना है, जरा दाब दो। परन्तु संकोचवश किसीसे कुछ कहा नहीं। मैं इस प्रकार विचारोंमें ही निमग्न था कि वकील साहब पैर अनायास दबाने लगे। मैंने कहा- 'वकील साहब आप क्या कर रहे हैं ?' उन्होंने कहा - 'कोई हानिकी बात नहीं । मनुष्य- मनुष्य ही के काम आता है। आप निश्चिन्ततासे सो जाओ।' मैं अन्तरंगसे खुश हुआ, क्योंकि यही तो चाहता था । कर्मने वह सुयोग स्वयं मिला दिया ।' लिखनेका तात्पर्य यह है कि उदय बलवान् हो तो जहाँ जिस वस्तुकी सम्भावना न हो वहाँ भी वह वस्तु मिल जाती है और उदय निर्बल हो तो हाथमें आई हुई वस्तु भी पलायमान हो जाती है। इस प्रकार दस बजेसे लेकर तीन बजे तक वकील साहब मेरी वैयावृत्य करते रहे। जब प्रातःकालके तीन बजे तब वकील साहबने कहा कि 'अब गिरिनारजीके लिए आपकी गाड़ी बदलेगी, जग जाइये ।' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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