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________________ श्री गिरिनार यात्रा 235 पर हिंसा हो और न भी हो। परन्तु उपाधिके सद्भावमें वह नियमसे होती है, क्योंकि ईर्यापथसे साधु चल रहा है, इतनेमें कोई सूक्ष्म जीव आया और उसके पगतले दबकर मर गया तो उस समय जीवके मरने पर भी प्रमत्तयोगका अभाव होनेसे साधु हिंसाका भागी नहीं होता और यदि प्रमत्तयोग है तो बाह्य हिंसा न होने पर भी हिंसा अवश्यम्भावी है। परन्तु वस्त्रादि उपाधिके सद्भावमें नियमसे हिंसा का सद्भाव है, क्योंकि अन्तरंगमें मूर्छा विद्यमान है। आप कहते रहे हैं कि दिगम्बर साधु भी तो पीछी, कमण्डलु तथा पुस्तक रखते हैं। उनको भी परिग्रही कहना चाहिए ? मैंने कहा-आपका कहना ठीक है, परन्तु इस परिग्रह और वस्त्र परिग्रहमें महान् अन्तर है। पीछी दयाका उपकरण है, कमण्डलु शौचका उपकरण है और पुस्तक ज्ञानका उपकरण है, पर वस्त्र परिग्रह तो केवल शीतादि निवारणके लिए ही रक्खा जाता है। साथ ही इसमें एक दोष यह भी है कि वस्त्र रखनेवाला साधु नग्न परीषह नहीं सहन कर सकता। फिर भी पीछी आदि परिग्रह छठवें गुणस्थान पर्यन्त ही है। सप्तमादि गुणस्थानोंमें यह भी नहीं रहते...इत्यादि बहुत देर तक बातचीत होती रही। आपकी प्रकृति सौम्य थी, अतः आपने कहा कि 'अच्छा, इसपर विचार करेंगे, अभी मैं इस सिद्धान्तको सर्वथा नहीं मानता। हाँ, सिद्धान्त उत्तम है यह मैं मानता हूँ। मैंने कहा-'कल्याणका मार्ग पक्षसे बहिर्भूत है। आपने कहा-'ठीक है, परन्तु जिसकी वासनामें जो सिद्धान्त प्रवेश कर जाता है उसका निकलना सहज नहीं। काल पाकर ही वह निकलता है। सब जानते हैं कि शरीर पुद्गलद्रव्यका पिण्ड है। इसके भीतर आत्माके अंशका भी तद्भाव नहीं है। यद्यपि आत्मा और शरीर एकक्षेत्रावगाही हैं फिर भी आत्माका अंश न पुद्गलात्मक शरीरमें है और न पुद्गलात्मक शरीरका आत्मामें ही है। इतना सब होनेपर भी जीवका इस शरीरके साथ अनादिसे ऐसा मोह रहा है कि वह अहर्निश इसीकी सेवामें प्रयत्नशील रहता है। वह इसके लिए जो-जो अनर्थ करता है वह किसीसे गोप्य नहीं है। मैं बोला-'ठीक है परन्तु अन्तमें जिसका मोह इससे छूट जाता है वही तो सुमार्गका पात्र होता है। परद्रव्यके सम्बन्धसे जहाँ तक मूर्छा है वहाँ तक कल्याणका पथ नहीं। हम अपनी दुर्बलतासे वस्त्रको न त्याग सकें यह दूसरी बात है, परन्तु उसे रागबुद्धिसे रख कर भी अपने आपको अपरिग्रही माने, यह खटकनेकी बात है।' अन्तमें आपने कहा-यह विषय विचारणीय है।' मैं बोला-'आपकी इच्छा।' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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