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मेरी जीवनगाथा
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मूल कारण अनेक मतोंकी सृष्टि है। एक दूसरेके शत्रु बन रहे हैं। जो वास्तविक धर्म है वह तो संसार बन्धनका घातक है। उस ओर हमारी दृष्टि नहीं । धर्म तो अहिंसामय है । वेद भी यही बात कहता है-'मा हिंस्यात् सर्व भूतानि।' तथा 'अहिंसा परमो धर्मः' यह भी अनादि मन्त्र है। जैन लोग इसे अब तक मानते हैं। यद्यपि उनकी भारतमें बहुत अल्प संख्या है फिर भी उसे व्यवहारमें लानेके लिए सतत प्रयत्नशील रहते हैं। श्रीमहात्मा गाँधीने भी उसे अपनाया है और उनका प्रभाव भी जनतामें व्याप्त रहा है.... यह प्रसन्नताकी बात है । अस्तु । हम लोग कांग्रेस देखकर श्री गिरिनारजीकी यात्राके लिये अहमदाबादसे प्रस्थान कर स्टेशनपर गये और झूनागढ़का टिकट लेकर ज्यों ही रेलमें बैठे त्यों ही मुझे ज्वरने आ सताया। बहुत ही बेचैनी हो गई । यद्यपि साथमें पं. मुन्नालालजी और राजधरलालजी बरया थे। परन्तु मैंने किसीको कुछ संकेत नहीं किया । चुपचाप पड़ गया। पास ही एक वकील बैठे थे, जो राजकोटके रहनेवाले थे और श्वेताम्बर सम्प्रदायके थे । उनसे राजधर बरयाका संवाद होने लगा। बहुत कुछ बात हुई । अन्तमें राजघर बरयाने वकील साहबसे कहा कि मैं तो विशेष बहस नहीं कर सकता। यदि आपको विशेष बहस करना है तो यह वर्णीजी जो कि बगलमें लेटे हुए हैं, उन्हें जगाये देता हूँ, आप उनसे शंका-समाधान करिये। वरयाने मुझे जगाया और कहा कि यह वकील साहब बहुत ही शिष्ट पुरुष हैं, आपसे मत - सम्बन्धी चर्चा करना चाहते हैं। मैं उठकर बैठ गया और कुछ समय तक हमारी वकील साहबसे तत्त्वचर्चा होती रही । चर्चाका विषय था - वस्त्रादि परिग्रह है या नहीं ? उनका कहना था कि वस्त्र परिग्रह नहीं है । मेरा कहना था कि मोहनीय कर्मके उदयसे जो परिणाम आत्माका होता है, वास्तविक परिग्रह वही है । उसके मिथ्यात्व, वेदत्रय, हास्यादि नव नोकषाय और क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषाय इस प्रकार चौदह भेद आगममें बतलाये हैं । यही अन्तरंगपरिग्रह है । अतः वस्त्रोंकी चर्चा छोड़ो, शरीर भी परिग्रह है । परन्तु यह निश्चित है कि वस्त्रादिका ग्रहण बिना मूर्च्छाके नहीं होता, अतः उसे भी भगवान् के उपचारसे परिग्रह संज्ञा दी है । यदि वस्त्रादि के ग्रहणसे मूर्च्छा न हो तो उसे कौन सँभाले ? मैला हो गया, फट गया इत्यादि विकल्प क्यों होवें ? श्रीप्रवचनसारमें इसको उपाधि कहा है। जहाँ उपाधि है वहाँ नियमसे हिंसा है, अतः श्री कुन्दकुन्द महाराजने कहा है कि 'जीवके मरने
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