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________________ श्री गिरिनार यात्रा 233 I निरन्तर ४० करोड़ जनताका कल्याण चाहते रहते हैं । आज भारतवर्षकी जो दुर्दशा है वह किसीसे छिपी नहीं है । जिस देशमें घी, दूधकी नदियाँ बहती थीं आज वहाँ करोड़ों पशुओंकी हत्या होनेसे रुधिरकी नदियाँ बह रही हैं। शुद्ध घी-दूधका अभाव-सा हो गया है। जहाँ आर्षवाक्योंकी ध्वनिसे पृथिवी गूँजती थी वहाँ पर विदेशी भाषाका ही दौर दौरा है । जहाँ पर पण्डित लोग किसी पदार्थकी प्रमाणता सिद्ध करनेके के लिये अमुक ऋषिने अमुक शास्त्रमें ऐसा लिखा है...... इत्यादि व्यवस्था देते थे वहाँ अब साहब लोगोंके वाक्य ही प्रमाण माने जाते हैं । अतः नेता लोग निरन्तर यह यत्न करते रहते हैं कि हमारा देश पराधीनताके बन्धनसे मुक्त हो जावे । कांग्रेसमें जानेसे उन महानुभावोंके व्याख्यान सुनने को मिलेंगे और सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि श्रीगिरिनार सिद्धक्षेत्रकी वन्दना अनायास हो जावेगी । मैं श्री गिरिनारजीकी यात्राके लोभसे कांग्रेस देखनेके लिये चला गया और अहमदाबादमें श्रीछेदीलालजी सुपरिन्टेन्डेन्टके यहाँ ठहर गया । यहाँ पर श्रीब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी और श्रीशान्तिसागरजी छाणीवाले ब्रह्मचारी वेठामें पहलेसे ही ठहरे थे। हम तीनोंका निमन्त्रण एक सेठके यहाँ हुआ । चूँकि मुझे ज्वर आता था, अतः घर पर पथ्यसे भोजन करता था । परन्तु उस दिन पूड़ी •शाक मिली। खीर भी बनी थी जो उन्होंने मुझे परोसना चाही, पर मैंने एक बार मना कर दिया। परन्तु जब दूसरी बार खीर परोसनेके लिये आये तब मैंने लालच वश ले ली। फल उसका यह हुआ कि वेगसे ज्वर आ गया । बहुत ही वेदना हुई जिससे उस दिनका कांग्रेसका अधिवेशन नहीं देख सका। दूसरे दिन ज्वर निकल गया, अतः कांग्रेसका अधिवेशन देखनेके लिये गया । वहाँका प्रबन्ध सराहनीय था क्या होता था कुछ समझमें नहीं आया, किन्तु वहाँ पेपरोंमें सब समाचार आनुपूर्वी मिल जाते थे। कहनेका तात्पर्य यह है कि जिनका देश है वे तो पराधीन होनेसे भिक्षा मांग रहे हैं और जिनका कोई स्वत्व नहीं वे पुरुषार्थ बलसे राज्य कर रहे हैं। ठीक ही तो कहा है- 'वीरभोग्या वसुन्धरा' जिन लोगोंका इस भारतवर्षपर जन्मसिद्ध अधिकार है वे तो असंघटित होनेसे दास बन रहे हैं और जिनका कोई स्वत्व नहीं वे यहाँके प्रभु बन रहे हैं। जब तक इस देशमें परस्पर मनोमालिन्य और अविश्वास रहेगा तब तक इस देशकी दशा सुधरना कठिन है। यदि इस देशमें आज परस्पर प्रेम हो जावे तो बिना रक्तपातके भारत स्वतन्त्र हो सकता है, परन्तु यही होना असम्भव है । '८ कनवजिया ६ चूल्हे' की कहावत यहाँ चरितार्थ होती है । परस्पर मनोमालिन्यका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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