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________________ मेरी जीवनगाथा 232 उसी स्वाँगके पात्र हैं। यहाँ दो दिन रहकर पश्चात् बड़ौदाके लिए प्रयाण किया। यहाँ बहुत स्थान परोपकारके हैं। परन्तु उन्हें देखनेका न तो प्रयास किया और न रुचि ही हुई। यहाँसे चलकर आबूरोड़पर आये और यहाँसे मोटरमें बैठकर पहाड़के ऊपर गये। पहाड़के ऊपर जानेका मार्ग सर्पकी चालके समान लहराता हुआ घुमावदार है। ऊपर जाकर दिगम्बर मन्दिरमें ठहर गये। बहुत ही भव्य मूर्ति है। यहाँ पर श्वेताम्बरोंके मन्दिर बहुत ही मनोज्ञ हैं। उन्हें देखनेसे ही उनकी कारीगरीका परिचय हो सकता है। कहते हैं कि उस समय इन मन्दिरोंके निर्माणमें सोलह करोड़ रुपये लगे। परन्तु वर्तमानमें तो अरबमें भी वैसी सुन्दरता आना कठिन है। इन मन्दिरोंके मध्य एक छोटा-सा मन्दिर दिगम्बरोंका भी है। यहाँसे ६ मील दूरीपर एक दिलवाड़ा है, जहाँ एक पहाड़ीपर श्वेताम्बरों के विशाल मन्दिरमें ऐसी ही प्रतिमा है जिसमें बहुभाग सुवर्णका है। एक सरोवर भी है जिसके तटपर संगमर्मरकी ऐसी गाय बनी हुई है जो दूरसे गायके सदृश ही प्रतीत होती है। यहाँपर दो दिन रहकर पश्चात् अजमेर आ गये। यहाँ श्री सोनी भागचन्द्रजी रहते हैं जो कि वर्तमानमें जैनधर्मके संरक्षक हैं, महोपकारी हैं। आपके मन्दिर नशियाजी आदि अपूर्व-अपूर्व स्थान हैं। उनके दर्शनकर चित्तमें अतिशान्ति आई। यहाँ दो दिन रहकर जयपुर आ गये और नगरके बाहर नशियाजीमें ठहर गये। यहाँपर सब मन्दिरोंके दर्शन किये। मन्दिरोंकी विशालताका वर्णन करना बुद्धि-बाह्य है। यहाँपर जैन विद्यालय है जिसमें मुख्य रूपसे संस्कृतका पाठन होता है। यहाँ शास्त्र-भण्डार भी विशाल हैं। धर्म-साधनकी सब सुविधाएँ भी यहाँपर है। यहाँ तीन दिन रहकर आगरा आये और यहाँसे सीधे सागर चले आये। सागर की जनताने बहुत ही शिष्टताका व्यवहार किया। कोई सौ नारियल भेंट में आये। यह सब होकर भी चित्तमें शान्ति न आई। श्री गिरिनार यात्रा सन् १६२१ की बात है। अहमदाबादमें कांग्रेस थी। पं. मुन्नालालजी और राजधरलालजी वरया आदिने कहा कि 'कांग्रेस देखनेके लिये चलिये। मैंने कहा-'मैं क्या करूँगा ?' उन्होंने कहा-'बड़े-बड़े नेता आवेंगे, अतः उनके दर्शन सहज ही हो जावेंगे। देखो, उन महानुभावोंकी ओर कि जिन्होंने देशके हितके लिये अपने भौतिक सुखको त्याग दिया, जो गवर्नमेण्ट द्वारा नाना यातनाओंको सह रहे हैं, जिन्होंने लौकिक सुखको लात मार दी है और जो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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