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________________ श्रीगोम्मटेश्वर - यात्रा Jain Education International I जिसको त्रैलोक्यतिलक कहते हैं, अत्यन्त विशाल है। इसमें प्रतिमाओंका समूह है। सभी प्रतिमाएँ रमणीक हैं । एक प्रतिमा स्फटिकमणिकी बहुत ही मनोहर और चित्ताकर्षक है । सिद्धान्तमन्दिरके दर्शन किये। रत्नमयी बिम्बोंके दर्शन किये। दर्शन करानेवाले ऐसी सुन्दर रचनासे दर्शन कराते हैं कि समवसरणका बोध परोक्षमें हो जाता है। ऐसा सुन्दर दृश्य देखनेमें आता है कि मानो स्वर्गका चैत्यालय हो । यहीं पर ताड़पत्रोंपर लिखे गये सिद्धान्तशास्त्रके दर्शन किये। यह नगर किसी कालमें धनाढ्य महापुरुषोंकी बस्ती रहा होगा, अन्यथा इतने अमूल्य रत्नोंके बिम्ब कहाँ से आते ? धन्य है उन महानुभावोंको जो ऐसी अमर कीर्ति कर गये । यहाँ पर श्री भट्टारकजी थे, जो बहुत ही वृद्ध और विद्वान् थे । आप दो घण्टा श्री जिनेन्द्रदेवकी अर्चामें लगाते थे । अर्चा ही में नहीं, स्वाध्यायका भी आपको व्यसन था तथा कोषके रक्षक भी थे। आपकी भोजनशालामें कितने ही ब्रह्मचारी त्यागी आजावें सबके भोजनका प्रबन्ध था । हमारे लिए जिस वस्तुकी आवश्यकता पड़ी वह आपके द्वारा मिल गई । इसके सिवाय हमारे चिर-परिचित नेमिसागर छात्रने सब प्रकारका आतिथ्य सत्कार किया । नारियलकी गिरिका तो इतना स्वाद हमने कहीं नहीं पाया। इस तरह तीन दिन हमारे इतने आनन्दसे गये कि जिसका वर्णन नहीं कर सकते। 1 I यहाँसे फिर बेलगाँव होकर पूना आगये और पूनासे बम्बई न जाकर मनमाड़ आ गये। यहाँसे एलोराकी गुफा देखनेके लिये दौलताबाद चले आये । वहाँके मन्दिरके दर्शनकर गुफा देखने गये । बीचमें एक रोजागाँव मिलता है वहीं पर डाक-बँगलामें ठहर गये । बँगलासे एक मील दूर गुफा थी, वहाँ गये । गुफा क्या है, महल है। प्रथम तो कैलाश गुफाको देखा । गुफासे यह न समझना कि दो या चार मनुष्य बैठ सकें। उसके बीचमें एक मन्दिर और चारों ओर चार बरामदा । तीन बरामदा इतने बड़े कि जिनमें प्रत्येक में पाँच सौ आदमी आ सकें । चतुर्थ बरामदे में सम्पूर्ण देवताओंकी मूर्तियाँ थीं। बीचमें एक बड़ा आँगन था। आँगनमें एक शिवजीका मन्दिर था जो कि एक ही पत्थरमें खुदा हुआ है। मन्दिरके सामनेका भाग छोड़कर तीनों ओर भीतपर हाथी खुदे हुए हैं, ऊपर जानेके लिए सीढ़ियाँ भी उसी मन्दिरमें हैं, छत है, शिखर है, कलशा भी है और खूबी यह है कि सब एक पत्थरकी रचना है, इत्यादि कहाँ तक लिखें ? यहाँसे श्री पार्श्वनाथ गुफा देखने गये । भीतर जाकर देखते हैं तो मन्दिरके इतने बड़े खम्भे दिखे कि जिनका घेरा चार गजसे कम न होगा । मूर्तियोंकी रचना अपूर्व 227 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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