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श्रीगोम्मटेश्वर - यात्रा
लिये हमारे पास सामग्री नहीं । परन्तु हृदयमें जो उत्साह हुआ वह हम ही जानते हैं, कहनेमें असमर्थ हैं। इसके बाद नीचे चतुर्विंशति तीर्थंकरोंकी मूर्तिके दर्शन किये। पश्चात् श्रीभट्टारकके मन्दिरमें गये । वहाँकी पूजनविधि देख आश्चर्यमें पड़ गये। यहाँ पर पुजनकी जो विधि है वह उत्तर भारतमें नहीं । यहाँ शुद्ध पाठका पढ़ना आदि योग्य रीतिसे होता है । परन्तु एक बात हमारी दृष्टिमें अनुचित प्रतीत हुई। वह यह है कि यहाँ जो द्रव्य चढ़ाते हैं उसे पुजारी ले जाते हैं और अपने भोजनमें लाते हैं।
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यहाँका वर्णन श्रवणबेलगोलाके इतिहाससे आप जान सकते हैं । यहाँ पर मनुष्य बहुत ही सज्जन हैं। एक दिनकी बात है - मैं कूपके ऊपर स्नान करनेके लिये गया और वहाँ एक हजार रुपयाके नोट छोड़ आया । जब भोजन कर चुका तब स्मरण आया कि नोटका बटुवा तो कूपपर छोड़ आये । एकबार व्याकुलता आई। बाईजीने कहा - 'इतनी आकुलता क्यों ?' मैंने कहा - 'नोट भूल आया ।' बाईजी बोलीं- 'चिन्ता न करो। प्रथम तो नोट मिल जावेंगे, यह जगद्विख्यात बाहुबली स्वामीका क्षेत्र है तथा हम शुभ परिणामोंसे यात्रा करनेके लिये आये हैं। इसके सिवाय हमारा जो धन है वह अन्यायोपार्जित नहीं है, यह हमारा दृढ़ विश्वास है । द्वितीय यदि न मिलें तो एक तार सिंघई कुन्दनलालजी को दे दो। रुपया आजावेंगे । चिन्ता करना व्यर्थ है । जाओ कूपपर देख आओ।' मैं कूपपर गया तो देखता हूँ कि बटुवा जहाँ पर रखा था वहीं पर रखा है। मैंने आश्चर्यसे कहा कि यहाँ पर जो स्त्री-पुरुष थे उनमेंसे किसीने यह बटुवा नहीं उठाया। वे बोले-'क्यों उठाते ? क्या हमारा था ?' उन्होंने अपनी भाषा कर्णाटकीमें उत्तर दिया पर वहीं जो दो भाषाका जाननेवाला था, मैंने उससे उनका अभिप्राय समझा ।
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यहाँ पर चार दिन रहकर मूडबिद्रीके लिए प्रस्थान कर दिया । मार्गमें अरण्यकी शोभा देखते हुए श्रीकारकल पहुँचे । छः मील मोटर नहीं जाती थी, अतः गाड़ीमें जाना पड़ा। मार्गमें बाईजी लघुशंकाके लिये नीचे उतरीं । चार बजे रात्रिका समय था । उतरते ही बैलने बड़े वेगसे लात मारी, जिससे बाईकी मध्यमा अंगुली फट गई। हड्डी दिखने लगी । रुधिर की धारा बह उठी, परन्तु बाईजीने आह न की । केवल इतना कहा - 'सेठ कमलापतिजी ! बैलने अंगुलीमें लात मार दी।' पश्चात् वहाँसे चलकर एक धर्मशालामें ठहर गये। वहीं पर सामायिकादि कार्य किये। जब प्रातःकाल हुआ तब हमने
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