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________________ मेरी जीवनगाथा 224 विद्वानोंका स्मरण हो आता है। आजकल पत्थरोंमें ऐसा बारीक काम करनेवाले शायद ही मिलेंगे। यहाँ पर कई चैत्यालयोंमें ताम्रकी मूर्तियाँ देखनेमें आईं। यहाँसे चलकर आरसीकेरी आये और वहाँसे चलकर मन्दगिरि। यहाँ पर श्रीमान् स्वर्गीय गुरमुखराय सुखानन्दजीकी धर्मशाला है जो कि बहुत ही मनोज्ञ है। यहाँ हमलोगोंने नदीके ऊपर बालूका चबूतरा बनाकर श्री जिनेन्द्रदेवका पूजन किया। बहुत ही निर्मल परिणाम रहे। यहीं पर मेरा अत्यन्त इष्ट चाकू गिर गया। इसकी तारीफ सुनकर आपको भारतके कारीगिरों पर श्रद्धा होगी। ओरछाके एक लुहारसे वह चाकू लिया था। लेते समय कारीगिरने उसकी कीमत पाँच रुपया माँगी। मैंने कहा-'भाई, राजिस चाकूकी भी तो इतनी कीमत नहीं होती। झूठ मत बोलो।' वह बोला-'आप राजिस चाकूको लड़ाकर इसके गुणको परीक्षा करना।' मैंने पाँच रुपया दे दिये। दैवयोगसे मैं झाँसीसे बरुआसागर आता था। रेल में एक आदमी मिल गया। उसके पास राजिस चाकू था। वह बोला-'हिन्दुस्तानके कारीगिर ऐसा चाकू नहीं बना सकते।' मैंने कहा-'देखो भाई ! यह एक चाकू हमारे पास है।' उसने मुख बनाकर कहा आपका चाकू किस कामका ? यदि मैं राजिस चाकू इसके ऊपर पटक दूं तो आपका चाकू टूट जावेगा।' मैंने कहा-'आप ऐसा करके देख लो। आज इसकी परीक्षा हो जावेगी। पाँच रुपयेकी बात नहीं।' उसने कहा-'यह तो एक आनाका भी नहीं। मैंने कहा-'जल्दी परीक्षा कीजिये।' उसने ज्यों ही अपना राजिस चाकू मेरे चाकू पर पटका त्यों ही वह मेरे चाकूकी धारसे कट गया। यह देख मुझे विश्वास हुआ कि भारतमें भी बड़े-बड़े कारीगिर हैं, परन्तु हमलोग उनकी प्रतिष्ठा नहीं करते। केवल विदेशी कारीगिरोंकी प्रशंसा कर अपनेको धन्य समझते हैं। अस्तु, यहाँसे नौ मील श्रीगोम्मटस्वामीका बिम्ब था। उनके मुखभागके दर्शन यहींसे होने लगे। भोजन करनेके बाद चार बजे श्री जैनबिद्री पहुँच गये। चूंकि ग्राममें कुछ प्लेगकी शिकायत थी, अतः ग्रामके बाहर एक गृहस्थके घर ठहर गये, रात्रिभर आनन्दसे रहे और श्री गोम्मटस्वामीकी चर्चा करते रहे। प्रातःकाल स्नानादि कार्यसे निवृत्त होकर श्री गोम्मटस्वामीकी वन्दनाको चले। ज्यों-ज्यों प्रतिमाजीका दर्शन होता था त्यों-त्यों हृदयमें आनन्दकी लहरें उठती थीं। जब पासमें पहुँच गये तब आनन्दका पारावार न रहा। बड़ी भक्तिसे पूजन किया। जो आनन्द आया वह अवर्णनातीत है। प्रतिमाकी मनोज्ञता का वर्णन करनेके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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