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श्रीगोम्मटेश्वर-यात्रा
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सिवाय दो सौ रुपया यह कहते हुए और दिये कि जहाँ आप समझें वहाँ व्रतभण्डारमें दे देना। मैंने बहुत कुछ कहा, परन्तु उन्होंने एक न मानी। जब मैं यात्राके लिए चलने लगा तब स्टेशन तक बहुत जनता आई और सबने नारियल भेंट किये।
हम सागर स्टेशनसे चलकर बीना आये। यहाँ भी सिंघई परमानन्दजी अपने घर ले गये तथा एक रात्रि नहीं जाने दिया। आप बड़े ही धर्मात्मा पुरुष थे। बीनामें श्री जैन मन्दिर बहुत रमणीक हैं तथा उसीमें लगा हुआ पाठशालाका बोर्डिंग भी है, जिसका व्यय श्री सिंघई श्रीनन्दलालजीके द्वारा सम्यक प्रकारसे चलता है। यहाँ भोजन कर नासिकका टिकट लिया। मार्गमें भेलसा स्टेशनपर बहुत से सज्जन मिले और श्रीफल भेंटमें दे गये।
रात्रिके समय नासिक पहुँचे। यहाँसे ताँगा कर श्रीगजपन्थाजी पहुँच गये। सात बलभद्र और आठ करोड़ मुनि जहाँसे मुक्तिको प्राप्त हुए उस पर्वतको देखकर चित्तमें बहुत प्रसन्नता हुई। मनमें यह विचार आया कि ऐसा निर्मल स्थान धर्मसाधनके लिए अत्यन्त उपयुक्त है। यदि यहाँ कोई धर्मसाधन करे तो सब सामग्री सुलभ है, जल-वायु उत्तम है तथा खाद्य-पेय पदार्थ भी योग्य मिलते हैं। परन्तु मूल कारण तो परिणामोंकी स्वच्छता है, जिसका अभाव है। अतः मनका विचार मनमें रह जाता है।
यहाँसे चलकर पूना आये, शहरमें गये और पूजनादि करनेके बाद भोजन कर बेलगाँव चले गये। स्टेशनसे धर्मशालामें पहुँचे। धर्मशाला मन्दिरकी एक दहलानमें थी, अतः सब लोग उसीमें ठहर गये। मैं दहलानसे मकानमें चला गया। यहाँ पर क्या देखता हूँ कि एक मनुष्य बैठा हुआ है और उसके कण्ठमें एक पुष्पमाला पड़ी हुई है। मेरा मन उसके देखनेमें लग गया। मैं विचारता हूँ कि ऐसा सुन्दर मनुष्य तो मैंने आजतक नहीं देखा, अतः बार-बार उसकी ओर देखता रहा। अन्तमें मैंने कहा-'साहब इतने निश्चल बैठे हैं जैसे ध्यान कर रहे हों, पर वह समय ध्यानका नहीं। दिनके तीन बज चुके हैं। यह तो कहिये कि धर्मशालामें एक कोठरी हम लोगोंकी ठहरनेके लिए मिलेगी या नहीं।' जब कुछ उत्तर न मिला तब मैंने स्थिर दृष्टिसे फिर देखा और बड़े आश्चर्यके साथ कहा-'अरे ! यह तो प्रतिमा है। वास्तवमें मैंने उतनी सुन्दर प्रतिमा अन्यत्र तो नहीं देखी। अस्तु, यहाँ पर दो दिन रहे। किला देखने गये। उसमें कई जिनमन्दिर हैं, जिनकी कला-कुशलता देखकर शिल्प-विद्याके निष्णात
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