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बालादपि सुभाषितं ग्राह्यम्
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लिया। राजगद्दीके समय मुझे भी बोलनेका अवसर आया। व्याख्यानके समय मेरा हाथ मेजपर पड़ा, जिससे मेरी अँगूठीका हीरा निकल गया। सभा विसर्जन होनेके बाद डेरामें आये और आनन्दसे सो गये। प्रातःकाल सामायिकके लिये जब पद्मासन लगाई और हाथपर हाथ रक्खा तब अँगूठी गड़ने लगी। मनमें विचार आया कि इसका हीरा निकल गया है, इसीलिये इसका स्पर्श कठोर लगने लगा है। फिर इस विकल्पको त्याग सामायिक करने लगा। सामायिकके बाद जब देखा तब सचमुच अंगठीमें हीरा न था। मनमें खेद हआ कि पाँच सौ रुपएका हीरा चला गया। जिससे कहँगा वही कहेगा कि कैसे निकल गया ? बाईजी भी रंज करेंगी, अतः किसीसे कुछ नहीं कहता। जो हुआ सो हुआ। ऐसा ही तो होना था। इसमें खेदकी कौन-सी बात है ? जब तक हमारी अंगूठीमें था तब तक हमारा था। जब चला गया तब हमारा न रहा, अतः सन्तोष करना ही सुखका कारण है। परन्तु फिर भी मनमें एक कल्पना आई कि यदि किसीको मिल गया और उसने काँच जानकर फेंक दिया तो व्यर्थ ही जावेगा, अतः मैंने स्वयंसेवकोंको बुलाया और उनके द्वारा मेलामें यह घोषणा करा दी कि वर्णीजीकी अंगूठीमेंसे हीरा निकल कर कहीं मण्डपमें गिर गया है जो कि पाँच सौ रुपएका है। यदि किसीको मिल जावे तो काँच समझकर फेंक न दे। उन्हींको दे देंवे। यदि न देनेके भाव हो तो उसे बाजारमें पाँच सौ रुपयासे कममें न देंवे। अथवा न बेचे तो मुद्रिकामें जड़वा लेंवे।'
वह हीरा जिस बालकको मिला, उसने अच्छा काँच समझकर रख लिया था। जब मैं भोजन कर रहा था तब हीरा लेकर आया और भोजन करनेके बाद यह कहते हुए उसने दिया कि 'यह हीरा मुझे सभामण्डपमें, जहाँ कि नृत्य होता था, मिला था। मैंने चमकदार देखकर इसे रख लिया था। जिस समय मिला था उस समय यह दूसरा बालक भी वहाँ था। यदि यह न होता तो सम्भव है हमारे भाव लोभके हो जाते और आपको न देता। इस कथासे कुछ तत्त्व नहीं। परन्तु एक बात आपसे कहना हमारा कर्तव्य है। यद्यपि हम बालक हैं, हमारी गणना शिक्षकोंमें नहीं और आप तो वर्णी हैं, हजारों आदमियोंको व्याख्यान देते हैं, शास्त्र-प्रवचन करते हैं, त्यागका उपदेश भी देते हैं और बहुतसे जीवोंका आपसे उपकार भी होता है। फिर भी मन आया, इसलिये कह रहा हूँ कि आपकी जो माता हैं वह धर्मकी मूर्ति हैं। आपका महान पुण्यका उदय है जो आपको ऐसी माँ मिल गयी। उनके उदार भावसे आप यथोचित
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