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________________ मेरी जीवनगाथा 220 चूंकि उनका प्रेम सदा विद्यादानमें रहता था, अतः यह रुपया संस्कृत विद्यालयको ही देना चाहिये और मन्त्री पूर्णचन्द्रजीसे कहा कि आप आज ही दुकानमें विद्यालयके जमा कर लो तथा मेरे नाम लिख दो। अब इन्हें समाधिमरण सुननेका अवसर है।' वह स्वयं सुनाने लगी और पन्द्रह मिनट बाद श्री पन्नालालजी बड़कुरका शान्तिसे समाधिमरण हो गया। इसके बाद उनकी धर्मपत्नीने उपस्थित जनताके समक्ष कहा कि 'यह संसार है। इसमें जो पर्याय उत्पन्न होती है वह नियमसे नष्ट होती है, अतः हमारे पतिकी पर्याय नष्ट हो गई। चूँकि ऐसा होता ही है, अतः इसमें आप लोगोंको शोक करना सर्वथा अनुचित है। यद्यपि आपके बड़े भ्राता व भतीजेको बन्धु-वियोगजन्य हानि हुई, परन्तु वह अनिवार्य थी। इसमें शोक करनेकी कौन-सी बात ? हम प्रतिदिन पाठ पढ़ते हैं 'राजा राणा छत्रपति हाथिनके असवार । मरना सबको एक दिन अपनी अपनी बार ।। दल बल देवी देवता मात पिता परिवार। मरती बिरियाँ जीवको कोई न राखन हार ।।' - जब कि यह निश्चय है तब शोक करनेकी क्या बात है ? शोक करनेका मूलकारण यह है कि हम उस परपदार्थको अपना समझते हैं। यदि इनमें हमारी यह धारणा न होती कि हमारे हैं तो आज यह कुअवसर न आता। अस्तु, आपकी जो इच्छा हो, उसकी शान्ति के लिये जो उचित हो वह कीजिये, परन्तु मैं तो अन्तरंगमें शोक नहीं चाहती। हाँ, लोकव्यवहारमें दिखानेके लिये कुछ करना ही होगा।' इतना कहकर वह मूर्छित हो गई। प्रातःकाल श्री पन्नालालजीके शवका दाह-संस्कार हुआ। बालादपि सुभाषितं ग्राह्यम् . इसके पहलेकी बात है-बण्डामें पञ्चकल्याणक थे। हम वहाँ गये। न्यायदिवाकर पण्डित पन्नालाजी प्रतिष्ठाचार्य थे। आप बहुत ही प्रतिभाशाली थे। बड़े-बड़े धनाढ्य और विद्वान् भी आपके प्रभावमें आ जाते थे। उस समय विद्याका इतना प्रचार न था, अतः आपकी प्रतिष्ठा थी' यह बात नहीं थी। आप वास्तवमें पण्डित थे। अच्छे-अच्छे ब्राह्मण पण्डित भी आपकी प्रतिष्ठा करते थे। छत्रपुर (छतरपुर) के महाराजा तो आपके अनन्यभक्त थे। जब आप छत्रपुर जाते थे तब राजमहलमें आपका व्याख्यान कराते थे। आपने बहुत ही विधिपूर्वक प्रतिष्ठा कराई। जनताने अच्छा धर्म लाभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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