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मेरी जीवनगाथा
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और कहा कि आपकी इस प्रवृत्तिको धिक्कार है । सुन्दर पत्नीको छोड़कर इस अकार्यमें प्रवृत्ति करते हुए आपको लज्जा न आई। अब मैं अपने बालकको लेकर अपने पिताके घर जाती हूँ। वहीं पर इन्हें शिक्षित बनाऊँगी। यदि आपकी प्रवृत्ति अच्छी हो जाय तो घर आ जाना। यह सब पापका फल है । आपने पुलिसके मुहकमामें रहकर जो गरीबोंको सताया है उसीका प्रत्यक्ष फल भोग रहे हो और आगे भोगोगे..... । इतना कहकर वह अपने पिताके घर चली गई। जब मेरे पास कुछ नहीं रहा तब इधर वेश्याने अपने पास आनेसे रोक दिया और उधर निरन्तरकी गैरहाजिरीसे पुलिसकी नौकरी छूट गई। मैं दोनों ओरसे भ्रष्ट हो गया । न इधरका रहा न उधरका रहा। अब मैं इसी पेड़के नीचे पड़ा रहता हूँ, मोहल्लेमें जाकर आधा सेर आटा माँग लाता हूँ और चार टिक्कर बनाकर खा लेता हूँ।'
मैंने कहा- 'इससे अच्छा तो यह होता कि आप अपने घर चले जाते और अपने बालकोंको देखते।' वह बोला- 'यह तो असम्भव है।' मैंने कहा- 'जब कि वह आपको अपने घर नहीं आने देती तब यहाँ रहनेसे क्या लाभ ?' वह बोला- ' लाभ न होता तो क्यों रहता ?' मैंने पूछा- 'क्या लाभ है ?' वह बोला- 'सुनो, जब वह सायंकाल भ्रमणके लिये बाहर आती है तब मैं बड़ी अदबके साथ कहता हूँ कहिये मिजाज शरीफ ..... तब वह मेरे ऊपर पानकी पीक छोड़ देती है और १० गालियाँ देती हुई मुखातिब होकर कहती है कि 'बेशरम ? यहाँसे घर चला जा । जो रुपया मुझे दिया है वह भी ले जा .... बस मैं इसीसे कृतकृत्य हो जाता हूँ.... यह मेरी आत्मकथा है। मेरी इस कथाको सुनकर जो इस पापसे बचें वे धन्य हैं। वेश्या तो उपलक्षण है । परकीय स्त्री मात्रसे आत्मरक्षा करनी चाहिये। अथवा परस्त्री तो त्याज्य है ही, विवेकी मनुष्यों को स्वस्त्रीमें भी अत्यासक्ति न रखना चाहिये ।
वेश्या व्यसनकी भयंकरताका ध्यान करते हुए हम उस दिन भ्रमणके लिये नहीं गये। वहींसे वापिस लौट आये !
महिलाका विवेक
सागर में मन्त्री पूर्णचन्द्रजी बहुत बुद्धिमान् विवेकी हैं। उनके मित्र श्री पन्नालालजी बड़कुर थे। आप दोनोंकी परस्पर संजातमें कपड़ेकी दूकान थी । आप दोनोंमें सहोदर भाइयों जैसा प्रेम था । दैवयोगसे श्री पन्नालालजीका स्वास्थ्य खराब होने लगा। आप चार मास पाठशालाके स्वच्छ भवनमें रहे,
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