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वेश्याव्यसन
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दूरसे ही नमस्कार करते थे। लिखनेका तात्पर्य यह है कि मनुष्यको सर्वसाध पारण दयाका उद्योग करना चाहिये, क्योंकि दया ही मानवका प्रमुख कर्त्तव्य है।
वेश्याव्यसन एक दिन मैं भ्रमण के लिये स्टेशनकी ओर जा रहा था। साथमें एक पुलिसके क्लर्क भी थे, जिनका वेतन एक सौ पच्चीस रुपया मासिक था। कटरा बाजारकी बात है-वृक्षके नीचे एक आदमी पड़ा था, जो शरीरका सुन्दर था और देखनेमें उत्तम जातिका मालूम होता था। उसकी मुखाकृतिसे प्रतीत होता था कि वह शोकावस्थामें निमग्न है। मैंने जिज्ञासु भावसे पूछा-'भाई ! आप यहाँ निराश्रितकी तरह क्यों पड़े हुए हैं ? आप आकृतिसे तो भद्र पुरुष मालूम होते हैं। वह बोला-'मैंने अपने पैरपर स्वयं कुल्हाड़ी मार ली।' मैं कुछ नहीं समझ सका, अतः मैंने पुनः कहा-'इसका क्या तात्पर्य है ?' वह बोला-'हमारी आत्मकथा सुनना हो तो शान्त होकर सुन लो।' वैसे तो क्लर्क महोदय, जो कि आपके साथ हैं, सब जानते हैं। परन्तु हमसे ही सुननेकी इच्छा हो और पन्द्रह मिनट का अवकाश हो तो सुननेकी चेष्टा कीजिये, अन्यथा खुशीसे जा सकते
उसके उत्तरसे मेरी उत्कण्ठा बढ़ गई। क्लर्क साहबने बहुत कुछ कहा-'चलिये।' मैंने कहा-'नहीं जाऊँगा।' कृपाकर आप भी पन्द्रह मिनट ठहर जाइये।' वह मेरे आग्रहसे ठहर गये।
__उसने अपनी कथा सुनाना प्रारम्भ किया-'सर्व प्रथम उसने सीतारामका स्मरणकर कहा कि 'हे मंगलमय भगवान ! तेरी लीला अपरम्पार है। मैं क्या था
और क्या हो गया ? अथवा आपका इसमें क्या दोष ? मैं ही अपने पतित कर्तव्योंसे इस अवस्थाको प्राप्त हुआ हूँ | मैं जातिका नीच नहीं, ब्राह्मण हूँ। मेरे सुन्दर स्त्री तथा दो बालक हैं, जो कि अब गोरखपुर चले गये हैं। मैं पुलिस में हवलदार था। मेरे पास पाँच हजार नकद रुपये थे। बीस रुपया मासिक वेतन था।
एक दिन मैं एक अफसरके यहाँ वेश्याका नाच देखनेके लिये चला गया। वहाँ जो वेश्या नृत्य कर रही थी, उसे देखकर मैं मोहित हो गया। दूसरे दिन जब उसके घर गया तब उसने जालमें फँसा लिया। बहुत कहनेसे क्या लाभ ? मेरे पास जो सम्पत्ति थी वह मैंने उसे दे दी। जब रुपया न रहा तब औरतके आभूषण देने लगा। पता लगने पर औरतने मुझे बहुत कुछ समझाया
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