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________________ 216 मेरी जीवनगाथा हैं। आप क्षेत्र कमेटीके सभापति हैं । I इस प्रान्तमें आप बहुत धार्मिक व्यक्ति हैं । अनेक संस्थाओंको यथासमय सहायता करते हैं । हमारे साथ आपका बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है । आप निरन्तर हमारी चिन्ता रखते हैं। इस पाठशालाका नाम श्री गुरुदत्त दिगम्बर जैन पाठशाला रखा गया । दया ही मानवका प्रमुख कर्त्तव्य द्रोणगिरिसे लौटकर हम लोग सागर आ गये। एक दिनकी बात है कि मैं पं. वेणीमाधवजी व्याकरणाचार्य और छात्रगणके साथ सांयकालके चार बजे शौचादिक्रियासे निवृत्त होनेके लिए गाँवके बाहर एक मीलपर गया था। वहीं कूप पर हाथ धोनेकी तैयारी कर रहा था कि इतनेमें एक औरत बड़े जोरसे रोने लगी। हम लोगोंने पूछा - "क्यों रोती हो ?” उसने कहा- 'हमारे पैरमें काँटा लग गया है।' हमने कहा - ' बतलाओं हम निकालते हैं ।' परन्तु बार-बार कहने पर भी वह पैरको न छूने देती थी। कहती थी कि 'मैं जातिकी कोरिन तथा स्त्री हूँ। आप लोग पण्डित हैं। कैसे पैर छूने दूँ ?' मैंने कहा- 'बेटी ! यह आपत्तिकाल है । इस समय पैर छुवानेमें कोई हानि नहीं।' बमुश्किल उसने एक लड़केसे कहा- 'बेटा देखो।' लड़केने पैर देखकर कहा - 'इसमें खजूरका काँटा टूट गया है जो बिना सँडसीके निकलनेका नहीं।' सड़कके ऊपर एक लुहारकी दुकान थी। वहाँ एक छात्र सँडसी लेनेके लिये भेजा। छात्रने बड़े अनुनयसे सँडसी माँगी, पर उसने न दी। श्री वेणीमाधवजी ने कहा- 'जबरदस्ती छीन लाओ ।' छात्र बलात्कार लुहारसे सँडसी छीन लाए। मैंने चाहा कि सँडसीसे काँटा निकाल दूँ, परन्तु उस औरतने पैर छुवाना स्वीकार न किया । तब कुछ छात्रोंने उसके हाथ पकड़ लिये और कुछने पैर । मैंने सँडसीसे काँटा दबा कर ज्योंही खींचा त्यों ही एक अँगुलका काँटा बाहर आ गया। साथ ही खूनकी रा बहने लगी। मैंने पानी ढोलकर धोती फाड़कर पट्टी बाँध दी। उसे मूर्छा आ गई। पश्चात् जब मूर्छा शान्त हुई तब लकड़ीकी मौरी उठानेकी चेष्टा करने लगी, वह लकड़हारी थी । जंगलसे लकड़ियाँ लाई थी । मैंने कहा - 'तुम धीरे-ध रे चलो। हम तुम्हारी लकड़ियाँ तुम्हारे घर पहुँचा देवेंगे।' बड़ी कठिनतासे वह मंजूर हुई। हम लोगोंने उसका बोझ शिरपर रखकर उसके मोहल्लामें पहुँचा दिया । उस मोहल्लेके जितने मनुष्य थे, हम लोगोंकी यह प्रवृत्ति देखकर हम लोगोंको देवता कहने लगे और जब कभी भी हम लोग वहाँसे निकलते थे तब Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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