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द्रोणगिरि क्षेत्रपर पाठशालाकी स्थापना
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कहा- 'अच्छा जब आऊँगा तब प्रयत्न करूँगा ।'
जब द्रोणगिरि आया तब उसका स्मरण हो आया, अतः पाठशालाके खोलनेका प्रयास किया । पर इस ग्राममें क्या धरा था ? यहाँ जैनियों के केवल 1 दो तीन घर हैं जो कि साधारण परिस्थितियोंके हैं। मेलाके अवसर पर अवश्य आस-पासके लोग एकत्रित हो जाते हैं। पर मेला अभी दूर था, इसलिये विचारमें पड़ गया। इतनेमें ही घुवारामें जलविहार था । वहाँ जानेका अवसर मिला। मैंने वहाँ एकत्रित हुए लोगोंको समझाया कि - 'देखो, यह प्रान्त विद्यामें बहुत पीछे है । आप लोग जलविहारमें सैकड़ों रुपये खर्च कर देते हो, कुछ विद्यादानमें भी खर्च करो । यदि क्षेत्र द्रोणगिरिमें एक पाठशाला हो जावे तो अनायास ही इस प्रान्तके बालक जैनधर्मके विद्वान् हो जावेंगे।'
बात तो सबको जच गई, पर रुपया कहाँसे आवे ? किसीने कहा- 'अच्छा चन्दा कर लो।' चन्दा हुआ, परन्तु बड़ा परिश्रम करने पर भी पचास रुपया मासिक ही चन्दा हो सका ।
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घुवारासे गंज गये। वहाँ दो सौ पचास रुपयाके लगभग चन्दा हुआ। सिंघई वृन्दावनदासजी मलहरावालोंने कहा- 'आप चिन्ता न करिये । हम यथाशक्ति सहायता करेंगे।' इस प्रान्तमें वाजनेवाले दुलीचन्द्रजी बड़े उत्साही नवयुवक हैं। उन्होंने कहा- 'हम भी प्राणपनसे इसमें सहायता करेंगे।' पश्चात् मेलेका सुअवसर आ गया। सागरसे पं. मुन्नालालजी राँधेलीय आ गये। उन्होंने भी घोर परिश्रम किया। सिंघई कुन्दनलालजी से भी कहा कि यह प्रान्त बहुत पिछड़ा हुआ है अतः कुछ सहायता कीजिये । उन्होंने १००) वर्ष देना स्वीकृत किया । अन्तमें पं. मुन्नालालजी और दुलीचन्द्रजीकी सम्मति से वैसाख बदि ७ सं. १९८५ में पाठशाला स्थापित कर दी। पं. गोरेलालजीको बीस रुपया मासिक पर रख लिया, चार या पाँच छात्र भी आ गये और कार्य यथावत् चलने लगा । एक वर्ष बीतने के बाद हम लोग फिर आये । पाठशालाका वार्षिकोत्सव हुआ। पंडितजीके कार्यसे प्रसन्न होकर इस वर्ष सिंघईजीने बड़े आनन्दसे ५०००) देना स्वीकृत कर लिया। सिंघई वृन्दावनदासजीने एक सरस्वतीभवन बनवा दिया। कई आदमियोंने छात्रोंके रहनेके लिए छात्रालय बना दिया । एक कूप भी छात्रावास में बन गया। सिंघईजीके छोटे भाई श्री नत्था सिंघईने भी एक कोठा बनवा दिया। छात्रों की संख्या २० हो गई और पाठशाला अच्छी तरह चलने लगी। इसमें विशेष सहायता श्री सिं. कुन्दनलालजीकी रहती है। आप प्रतिवर्ष मेलाके अवसर पर आते हैं और क्षेत्रका प्रबन्ध भी आप ही करते
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