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द्रोणगिरि
सत्ताईस जिन मन्दिर हैं । ग्रामके मन्दिरमें श्री ऋषभदेव स्वामी की शुभ्रकाय विशाल प्रतिमा है । पर निरन्तर अँधेरा रहनेसे उसमें चमगीदड़ रहने लगीं, जिससे दुर्गन्ध आती रहती थी। मैंने एक दिन सिंघईजीसे कहा - 'द्रोणगिरि क्षेत्रके गाँवके मन्दिरमें चमगीदड़ें रहती हैं, जिससे बड़ी अविनय होती है। यदि देशी पत्थरकी एक वेदी बन जावे और प्रकाशके लिये खिड़कियाँ रख दी जावें तो बहुत अच्छा हो ?‘
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सिंघईजीके विशाल हृदयमें यह बात भी समा गई, अतः हमसे बोले कि 'अपनी इच्छाके अनुसार बनवा लो।' मैंने भैयालाल मिस्त्री को, जिसने कि मानस्तम्भ बनवाया था, सब बातें समझा दी । उसने उत्तमसे उत्तम वेदी बना दी। मैं स्वयं वेदी और कारीगरको लेकर द्रोणगिरि गया तथा मन्दिरमें यथास्थान वेदी लगवा दी एवं प्रकाशके लिये खिड़कियाँ रखवा दीं। मन्दिरकी दालान में चार स्तम्भ थे। उन्हें अलग कर ऊपर गाटर डलवा दिये, जिससे स्वाध्यायके लिये पुष्कल स्थान निकल आया। पहले वहाँ दस आदमी कष्टसे बैठ पाते थे, अब वहाँ पचास आदमियोंके बैठने लायक स्थान हो गया ।
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यहाँ एक बात विशेष यह हुई कि जहाँ हम लोग ठहरे थे वहाँ दरवाजे में मधुमक्खियोंने छत्ता लगा लिया, जिससे आने जानेमें असुविधा होने लगी। मालियोंने विचार किया कि जब सब सो जावें तब धूम कर दिया जावे, जिससे मधुमक्खियाँ उड़ जायेंगी। ऐसा करनेसे सहस्रों मक्खियाँ मर जातीं, अतः यह बात सुनते ही मैंने मालियोंसे कहा कि 'भाई ! वेदी जड़ी जावे, चाहे नहीं जड़ी जावे, पर यह कृत्य तो हम नहीं देख सकते। तुम लोग भूलकर भी यह कार्य नहीं करना ।' भरोसा माली धार्मिक था । उसने कहा कि 'आप निश्चिंत रहिये, हम ऐसा काम न करेंगे।' अनन्तर हम श्री जिनेन्द्रदेवके पास प्रार्थना करने लगे कि "हे प्रभो आपकी मूर्तिके लिये ही वेदी बन रही है । यदि यह उपद्रव रहा तो हम लोग प्रातःकाल चले जावेंगे। हम तो आपके सिद्धांतके ऊपर विश्वास रखते हैं । परजीवोंको पीड़ा पहुँचाकर धर्म नहीं चाहते । आपके ज्ञानमें जो आया है वही होगा । सम्भव है यह विघ्न टल जावे ।'....इस प्रकार प्रार्थना करके सो गये । प्रातःकाल उठनेके बाद क्या देखते हैं कि वहाँ पर एक भी मधुमक्खी नहीं है । फिर क्या था ? पन्द्रह दिनमें वेदिका जड़ गई। पश्चात् पण्डित मोतीलालजी वर्णीके द्वारा नवीन वेदिकामें विधिवत् श्रीजी विराजमान हो गये ।
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