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मेरी जीवनगाथा
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लोगोंका कहना था कि या तो 'पतित पावन' इस स्तोत्रका पाठ छोड़ दो या हमें भी भगवान्के दर्शन करने दो। बात विचारणीय है, परन्तु यहाँ तो इतनी गहरी खाई है कि उसका भरा जाना असम्भव-सा है। जब कि यहाँ दस्सों तकको दर्शन-पूजनसे रोकते हैं तब असवर्णो की कथा कौन सुनने चला ?' उसे सुनकर तो बाँसों उछलने लगते हैं। क्या कहें ? समयकी बलिहारी है। आत्मा तो सबका एक लक्षणवाला है। केवल कर्मकृत भेद है। चारों गतिवाला जीव सम्यग्दर्शनका पात्र है। फिर क्या शुद्रोंके सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता। पुराणोंमें तो चाण्डालों तकके धर्मात्मा होनेकी कथा मिलती है। निकृष्टसे निकृष्ट जीव भी सम्यग्दर्शनका धारी हो सकता है। सम्यग्दर्शनकी बात तो दूर रही, अस्पृश्य शुद्र श्रावकके व्रत धर सकता है। अस्तु, इस कथाको छोड़ो।।
मैंने सिंघईजीसे कहा-'आप एक मानस्तम्भ बनवा दो, जिसमें ऊपर चार मूर्तियाँ स्थापित होंगी। हर कोई आनन्दसे दर्शन कर सकेगा।' सिंघईजीके उदार हृदयमें वह बात आ गई। दूसरे ही दिनसे भैयालाल मिस्त्रीकी देखरेखमें मानस्तम्भका कार्य प्रारम्भ हो गया और तीन मासमें बनकर खड़ा हो गया। पं. मोतीलालजी वर्णीद्वारा समारोहसे प्रतिष्ठा हुई। उतुंग मानस्तम्भको देखकर समवसरणके दृश्यकी याद आ जाती है। सागरमें प्रतिवर्ष महावीर जयन्तीके दिन विधिपूर्वक मानस्तम्भ और तत्स्थ प्रतिमाओंका अभिषेक होता है, जिसमें समस्त जैन नर-नारियोंका जमाव होता है।
___ इस प्रकार सिंघई कुन्दनलालजीके द्वारा सतत धार्मिक कार्य होते रहते हैं। ऐसा परोपकारी जीव चिरायु हो। आपके लघु भ्राता श्री नाथुरामजी सिंघईने भी दस हजार रुपया लगाकर एक गंगाजमुनी चाँदीसोनेका विमान बनवाकर मन्दिरजीको समर्पित किया है, जो बहुत ही सुन्दर है तथा सागरमें अपने ढंगका एक ही है।
द्रोणगिरि द्रोणगिरि सिद्धिक्षेत्र बुन्देलखण्डके तीर्थक्षेत्रोंमें सबसे अधिक रमणीय है। हरा-भरा पर्वत और समीप ही बहती हुई युगल नदियाँ देखते ही बनती हैं। पर्वत अनेक कन्दराओं और निर्झरोंसे सुशोभित है। श्री गुरुदत्त आदि मुनिराजोंने अपने पवित्र पादरजसे इसके कण-कणको पवित्र किया है। यह उनका मुक्तिस्थान होनेसे निर्वाणक्षेत्र कहलाता है। यहाँ आनेसे न जाने क्यों मनमें अपने आप असीम शान्तिका संचार होने लगता है। यहाँ ग्राममें एक और ऊपर पर्वतपर -
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