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________________ जैन जातिभूषण श्री सिंघई कुन्दनलालजी 211 स्थापित करना चाहते हैं।' बाईजीने कहा-'बस यही, पर इसमें तुम्हारी क्या क्षति हुई ? मान लो, यदि तुम भोजनके लिये न गये और उस कारण सिंघईजी तुमसे अप्रसन्न हो गये तो उनके द्वारा पाठशालाको जो सहायता मिलती है वह मिलती रहेगी क्या ? मैंने कहा-'न मिले हमारा क्या जायगा ?' हमारा उत्तर सुनकर बाईजीने कहा कि 'तुम अन्यन्त नादान हो। तुमने कहा-हमारा क्या जायगा? अरे मूर्ख ? तेरा तो सर्वस्व चला जायगा । आखिर तुम यही तो चाहते हो कि विद्यालयके द्वारा छात्र पण्डित बनकर निकलें और जिनधर्मकी प्रभावना करें। यह विद्यालय आजकल धनिक वर्गके द्वारा ही चल रहे हैं। यद्यपि पण्डित लोग चाहें तो चला सकते हैं, परन्तु उनके पास द्रव्यकी त्रुटि है। यदि उनके पास पुष्कल द्रव्य होता तो वे कदापि पराधीन होकर अध्ययन-अध्यापनका कार्य नहीं करते। अतः समयको देखते हुए इन धनवानोंसे मिलकर ही अभीष्ट कार्यकी सिद्धि हो सकेगी। आज पाठशालामें ६००) मासिकसे अधिक व्यय है, यह कहाँसे आता है ? इन्हीं लोगोंकी बदौलत तो आता है ? अतः भूलकर भी न कहना कि मैं सिंघईजीके यहाँ भोजन के लिये नहीं जाऊँगा।' मैंने बाईजीकी आज्ञाका पालन किया। सरस्वतीभवनके उद्घाटनके पहले दिन प्रतिमाजी विराजमान करनेका मूहूर्त हो गया। दूसरे दिन सरस्वती भवनके उद्घाटनका अवसर आया। मैंने दो आलमारी पुस्तकें सरस्वतीभवनके लिये भेंट की। प्रायः उनमें हस्तलिखित ग्रन्थ बहुत थे। न्यायदीपिका, परीक्षामुख, आप्तपरीक्षा, प्रमेयकमलमार्तण्ड, अष्टसहस्री, सूत्रजी सटीक, सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, जैनेन्द्रव्याकरण, समयसार, प्रवचनसार, आदिपुराण आदि अनेक शास्त्र हस्तलिखित थे। उद्घाटन सागरके प्रसिद्ध वकील स्वर्गीय श्रीरामकृष्ण रावके द्वारा हुआ। अन्तमें मैंने कहा कि 'उद्घाटन तो हो गया, परन्तु इसकी रक्षाके लिये कुछ द्रव्यकी आवश्यकता है। सिंघईजीने २५०१) प्रदान किये। अब मैंने आपकी धर्मपत्नीसे कहा कि 'यह द्रव्य बहुत स्वल्प है, अतः आपके द्वारा भी कुछ होना चाहिये। आप सुनकर हँस गई। मैंने प्रकट कर दिया कि २५०१) सिंघेनजीका लिखो। इस प्रकार ५००२) भवनकी रक्षाके लिये हो गये। यह सरस्वतीभवन सुन्दरूपसे चलता है। लगभग ५००० पुस्तकें होंगी। ___कुछ दिन हुए कि सागरमें हरिजन आन्दोलन आरम्भ हो गया। मन्दिरोंमें सबको दर्शन मिलना चाहिए, क्योंकि भगवान् पतितपावन है। असवर्ण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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