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________________ मेरी जीवनगाथा 210 एक दिन मैंने सिंघईजीसे कहा कि यह सब तो ठीक हुआ, परन्तु आपके मन्दिरमें सरस्वती भवनके लिये एक मकान जुदा होना चाहिये। आपने तीन मासके अन्दर ही सरस्वतीभवनके नामसे एक मकान बनवा दिया, जिसमें ४०० आदमी आनन्दसे शास्त्र प्रवचन सुन सकते हैं। महिलाओं और पुरुषोंके बैठनेके पृथक्-पृथक् स्थान हैं। एक दिन सिंघईजी पाठशालामें आये। मैंने कहा-यहाँ और तो सब सुभीता है परन्तु सरस्वतीभवन नहीं है। विद्यालयकी शोभा सरस्वती मन्दिरके बिना नहीं। कहनेकी देर थी कि आपने मोराजीके उत्तरकी श्रेणीमें एक विशाल सरस्वतीभवन बनवा दिया। 'सरस्वतीभवनका उद्घाटन समारोहके साथ होना चाहिये और इसके लिये जयधवल तथा धवल ग्रन्थराज आना चाहिये'.......आपसे मैंने कहा। 'यहाँ कहाँ मिल सकेंगे ?'.....आपने कहा। 'सीताराम शास्त्री सहारनपुरमें हैं। उनसे हमारा घनिष्ठ सम्बन्ध है। उनके पास दोनों ही ग्रन्थराज हैं, परन्तु २०००) लिखाईके माँगते हैं ..... मैंने कहा। "मँगा लीजिये.....आपने प्रसन्नतासे उत्तर दिया। ___ मैंने दोनों ग्रन्थराज मँगा लिये। जब शास्त्रीजी ग्रन्थ लेकर आये तब उन्हें २०००) के अतिरिक्त सुसज्जित वस्त्र और विदाई देकर विदा किया। सरस्वतीभवनके उद्घाटनका मुहूर्त आया। किसीने आपकी धर्मपत्नीसे कह दिया कि आप सरस्वीभवनमें प्रतिमा भी पधरा दो, जिससे निरन्तर पूजा होती रहेगी। सरस्वीभवनसे क्या होगा ? उससे तो केवल पढ़े-लिखे लोग ही लाभ उठा सकेंगे। सिंघेनजीके मनमें बात जम गयी, फिर क्या था ? पत्रिका छप गई कि अमुक तिथिमें सरस्वतीभवनमें प्रतिमाजी विराजमान होंगी। यह सब देखकर मुझे मनमें बहुत व्यग्रता हुई। मेरा कहना था कि मोराजीमें एक चैत्यालय तो है ही, अब दूसरेकी आवश्यकता क्या है ? पर सुननेवाला कौन था ? मैं मन ही मन व्यग्र होता रहा। एक दिन सिंघईजीने निमन्त्रण किया। मैंने मनमें ठान ली कि चूंकि सिंघईजी हमारा कहना नहीं मान रहे हैं, अतः उनके यहाँ भोजनके लिये नहीं जाऊँगा। जब यह बात बाईजीने सुनी तब हमसे बोलीं-'भैया ! कल सिंघईजीके यहाँ निमन्त्रण है। मैंने कहा-'हाँ' है तो, परन्तु मेरा विचार जानेका नहीं है।' बाईजी ने कहा-'क्यों नहीं जानेका है।' मैंने कहा-'ये सरस्वतीभवनमें प्रतिमाजी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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