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जैन जातिभूषण श्री सिंघई कुन्दनलालजी
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रज्जीलालजीकी अमर निर्मल कीर्तिका पिण्ड ही हो।
इसी मोराजी भवनके विशाल प्रांगणमें परवारसभा हुई। सभा के अध्यक्ष थे श्री स्वर्गीय श्रीमन्त सेठ पूरनशाहजी सिवनी। जबलपुर, कटनी, खुरई आदि स्थानोंसे समाजके प्रायः प्रमुख-प्रमुख सब लोग आये। कमरयाजी द्वारा निर्मित भव्य भवन देखकर सभी प्रमुदित हुए और सभीने उनके सामयिक दानकी मुक्तकण्ठसे प्रशंसा की।
इतना ही नहीं, जब आपका स्वर्गवास होने लगा तब १६०००) दान और भी किया, जिसमें १००००) विद्यालयको तथा ६०००) दोनों मंदिरों के लिये थे। आप निरन्तर छात्रोंको भोजनादिसे तृप्त करते थे। आपकी प्रशंसा कहाँतक करें ? इतना ही बहुत है कि आप योग्य नररत्न थे। आपके बाद आपकी धर्मपत्नी भी निरन्तर पाठशालाकी सहायता करती रहती थीं। आपकी एक सुपुत्री गुलाबबाई है जो कि सहडोल विवाही है, परन्तु अधिकतर सागर ही रहती है।
जैन जातिभूषण श्री सिंघई कुन्दनलालजी सिंघई कुन्दनलालजी सागरके सर्वश्रेष्ठ सहृदय व्यक्ति हैं। आपका हृदय दयासे सदा परिपूर्ण रहता है। जबतक आप सामने आये हुए दुःखी मनुष्यको शक्त्यनुसार कुछ दे न लें तबतक आपको सन्तोष नहीं होता। न जाने कितने दुःखी परिवारोंको धन देकर, अन्न देकर, वस्त्र देकर और पूँजी देकर सुखी बनाया है। आप कितने ही अनाथ छोटे-छोटे बालकोंको जहाँ कहींसे आते हैं और अपने खर्चसे पाठशालामें पढ़ाकर उन्हें सिलसिलेसे लगा देते हैं। आप प्रतिदिन पूजन, स्वाध्याय करते हैं, अतिशय भद्र परिणामी हैं, प्रारम्भसे ही पाठशालाके सभापति होते आ रहे हैं और आपका वरद हस्त सदा पाठशालाके ऊपर रहता है।
एक दिन आप बाईजी के यहाँ बैठे थे। साथमें आपके साले कुन्दनलालजी घीवाले भी थे। मैंने कहा-'देखो, सागर इतना बड़ा शहर है, परन्तु यहाँ पर कोई धर्मशाला नहीं है। उन्होंने कहा-'हो जावेगी।'
दूसरे ही दिन श्री कुन्दनलालजी घीवालोंने कटराके नुक्कड़पर बैरिष्टर बिहारीलालजी रायके सामने एक मकान ३४००) में ले लिया और इतना ही रुपया उसके बनानेमें लगा दिया। आजकल वह २५०००) की लागतका है और सिंघईजीकी धर्मशालाके नामसे प्रसिद्ध है। हम उसी मकानमें रहने लगे।
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