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________________ मेरी जीवनगाथा 208 कारण पाकर पाठशालाके वर्तमान प्रबन्धसे आपका चित्त उदास हो गया। आप बोले-'हम अपनी पाठशाला पृथक् करेंगे। हमने कहा-'आपकी इच्छा।' आपने कुछ माह तक पृथक् पाठशालाका संचालन किया। पश्चात् फिर प्राचीन पाठशालामें मिला दी और पूर्ववत् सहायता देने लगे। कुछ दिन बाद आप बोले कि 'हम पाठशालाके लिए भवन और बनवाना चाहते हैं। मैंने कहा-'बहुत अच्छा। आपने सदस्योंसे मंजूरी ली और पहलेसे भी अच्छा भवन बनवा दिया। दोनों भवनोंके बीचमें एक बड़ा हाथी दरवाजा बनवाया, जिसमें बराबर हाथी जा सकता है। दरवाजेके ऊपर चन्द्रप्रभ चैत्यालय बनवा दिया, जिसमें छात्र लोग प्रतिदिन दर्शन, पूजन, स्वाध्याय करते हैं। आपने एक बात विलक्षण की, जो प्रायः असम्भव थी और पीछे आपके भतीजेके विरोधसे मिट गई। यदि विरोध न होता तो पाठशालाको स्थायी सम्पत्ति अनायास मिल जाती। वह यह की आपके भाई श्री लक्ष्मणदासजी कमरया मरते समय ३४०००) का ट्रस्ट कर गये थे। आपके प्रयत्नसे उसका १८०) मासिक पाठशालाको मिलने लगा और ६ वर्ष तक बराबर मिलता रहा, परन्तु आपके भतीजेने विरोध किया, जिससे बन्द हो गया। आपके दूसरे भतीजे श्री मुन्नालालजी हैं, जो बहुत ही योग्य और कर्मठ व्यक्ति हैं। आपने उस विषयमें बहुत कुछ प्रयत्न किया, परन्तु योग्य सामग्रीके अभावमें प्रयत्न सफल नहीं हो सका। श्री मुन्नालालजी कमरयाने अपने काकाके उपदेशानुसार पाठशालाके अन्दर एक धर्मशाला निर्माण करा दिया, जिससे अतिथियों और यात्रियोंको ठहरने आदिकी उत्तम सुविधा हो गई। पाठशालाके अन्दरके दोनों कूपोंका भी जीर्णोद्धार आपने करा दिया। चन्द्रप्रभ चैत्यालयका कलशोत्सव आपने बड़ी धूमधामके साथ किया था । हजारों आदमियोंकी भीड़ एकत्रित हुई थी। सबके भोजनपानकी व्यवस्था आपने ही की थी। आपके अपूर्व त्यागसे जंगलमें मंगल हो गया। मोराजीका यह बीहड़ स्थान, जहाँसे रात्रिके समय निकलनेमें लोग भयका अनुभव करते थे। आपके सर्वस्व त्यागसे सागरका एक दर्शनीय स्थान बन गया। एक छोटी-सी पहाड़ीकी उपत्यकामें सड़कके किनारे चूनासे पुते हुए धवल उत्तुंग भवन जब चाँदनी रातमें चन्द्रमाकी उज्ज्वल किरणोंका सम्पर्क पाकर और भी अधिक सफेदी छोड़ने लगते हैं तब ऐसा लगता है मानो यह कमरया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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