SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दानवीर श्री कमरया रज्जीलालजी 207 न होने पावे। हम तो निमित्तमात्र हैं। प्राणियोंके पुण्य-पापके उदय ही उनके सुख-दुःख दाता हैं। अब हम कुछ घन्टाके ही मेहमान हैं। कहाँ जावेंगे, इसका पता नहीं। परन्तु हमें धर्म पर दृढ़ विश्वास है, इससे हमारी सद्गति ही होगी। बाईजी अब हमारी अन्तिम जयजिनेन्द्र है।' रतनलालजीका ऐसा भाषण सुनकर सबकी धर्ममें दृढ़ श्रद्धा हो गई। बाईजी वहाँसे चलकर कटरा आईं कि आध घण्टा बाद सुननेमें आया कि रतनलालजीका स्वर्गवास हो गया। आपके शवके साथ हजारों आदमियोंका समारोह था। उनके समाधिमरणकी चर्चा सुन कर सब मुग्ध हो जाते । आपकी दाह-क्रिया कर लोग अपने-अपने घर चले गये। आपके वियोगसे समाज बहुत खिन्न हुई, परन्तु कर क्या सकते थे ? आपके छोटे भाई सिंघई डालचन्द्रजी भी बहुत योग्य व्यक्ति हैं। आपका शास्त्रमें बहुत अच्छा ज्ञान है। यद्यपि आप संस्कृत नहीं पढ़े हैं तथापि संस्कृतके धर्मशास्त्रमें आपकी अच्छी प्रवृत्ति है। आप प्रतिदिन पूजन करते हैं और एक घण्टा स्वाध्याय करते हैं। आपके यहाँ सदावर्त देनेकी जो पद्धति थी उसे आप बराबर चलाते हैं। आप तथा आपका घराना प्रारम्भसे ही पाठशालाका सहायक रहा है। दानवीर श्री कमरया रज्जीलालजी कमरया रज्जीलालजीके विषयमें पहले लिख आया हूँ। धीरे-धीरे उनके साथ मेरा घनिष्ठ सम्बन्ध हो गया। एक दिन आप बोले-'वर्णीजी ! हमारा दान करनेका भाव है।' मैंने कहा-'अच्छा है। जो आपकी इच्छा हो सो कीजिये।' आप बोले-'हम तो पञ्चकल्याणक करावेंगे।' मैंने कहा-'आपकी इच्छा हो सो कीजिये। ___ आप कलक्टर आदिके पास गये। जमींदारसे भी मिले। परन्तु उन्होंने अपनी जमीन पर मेला भरानेके लिए २०००) माँगे। आप व्यर्थ पैसा खर्च करना उपयुक्त नहीं समझते थे, अत: जमींदारकी अनचित माँगके कारण आपका चित्त पञ्चकल्याणकसे विरक्त हो गया। फिर हमसे कहा-'हमारी इच्छा है कि पाठशालाका भवन बनवा देवें। हमने कहा-'जो आपकी इच्छा।' बस, क्या था ? आपने पाठशालाके सदस्योंसे मंजूरी लेकर पाठशालाका भवन बनवाना प्रारम्भ कर दिया और अहर्निश परिश्रमकर ५० छात्रोंके योग्य भवन तथा एक रसोई घर बनवा दिया। साथमें १००) मासिक भी देने लगे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy