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________________ कलशोत्सवमें श्री पं. अम्बादासजी शास्त्रीका भाषण 203 अर्थात् स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल- भावकी अपेक्षा सम्पूर्ण विश्व सत् ही है और परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी अपेक्षा असत् ही है.....इसे कौन नहीं स्वीकृत करेगा ? क्योंकि ऐसा माने बिना पदार्थ-व्यवस्था नहीं हो सकती...... ।' शास्त्रीजीका व्याख्यान सुनकर सबने प्रशंसा की। इसी अवसर पर श्रीमान् न्यायाचार्य पं. माणिकचन्द्रजीका जैनधर्मके ऊपर बहुत ही प्रभावक व्याख्यान हुआ । व्याख्यानवाचस्पति पं. देवकीनन्दनजीने तो अपने व्याख्यानके द्वारा जनताको लोट-पोट कर दिया । व्याख्यानभूषण पं. तुलसीरामजी काव्यतीर्थका समाजसुधारपर मार्मिक भाषण हुआ और इसी समय सिद्धान्तमहोदधि पं. वंशीधरजीका जैन तत्त्वों पर तर्कपूर्ण व्याख्यान हुआ । इस प्रकार इन उद्भट विद्वानोंके समागमसे मलैयाजीका कलशोत्सव सार्थक हो गया । तीसरे दिन जलविहार होनेके बाद जब सभा विसर्जित होने लगी तब श्रीमान् मानिक चौकवालोंने मुझसे कहा कि आप पाठशालाके लिये अपील कीजिये। मैंने उनके कहे अनुसार इष्ट देवताका स्मरण कर उपस्थित जनताके समक्ष पाठशालाका विवरण सुनाया और साथ ही उसके मूल संस्थापक हंसराजजी कण्डयाको धन्यवाद दिया । अनन्तर यह कहा कि धनके बिना पाठशालाकी बहुत ही अवनत अवस्था हो रही है। यदि आप लोगोंकी दृष्टि इस ओर न गई तो सम्भव है कि एक या दो वर्ष ही पाठशाला चल सकेगी। अन्तमें उसकी क्या दशा होगी, सो आप सब जानते हैं। आजका कार्य भिक्षा माँगनेका है । भिक्षान्नका उपयोग आप ही के बालक विद्यार्जन के लिये करेंगे। यह भिक्षाका माँगना यदि आप लोग करते तो बहुत ही उपयुक्त होता, क्योंकि इस विषयमें जितना आपका परिचय है उतना मेरा नहीं। मैं तो एक तरहसे तटस्थ हूँ । परन्तु आपको भीख माँगनेमें लज्जा आती है, अतः मुझसे मँगवा रहे हैं। कुछ हानि नहीं, परन्तु यदि अपील व्यर्थ गई तो आप ही की हानि है और सफल हुई तो आप ही का लाभ है। आपके द्रव्यका सहयोग पाकर जो विद्यार्जन करेंगे उनका कल्याण होगा और उनके द्वारा जैनधर्मका विकास होगा । हमारे कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, अकलंक आदि बड़े-बड़े आचार्य जैनधर्मके महान् सिद्धान्तोंको जिन संस्कृत और प्राकृतके ग्रन्थोंमें अंकित कर गये हैं आज उन्हें पढ़नेवाले तो दूर रहे उनका नाम तक जाननेवाले इस प्रान्तमें नहीं हैं। क्या यही हमारी उनके प्रति कृतज्ञता है ? सम्यक् पठनपाठनके द्वारा ही उनके ग्रन्थोंका प्रचार हो सकता है और सम्यक् पठनपाठनकी व्यवस्था बिना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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