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मेरी जीवनगाथा
एक है वही अनेक भी है, जो पदार्थ सत्स्वरूप है वही पदार्थ असत्स्वरूप भी है तथा जो पदार्थ नित्य है वही अनित्य भी है। इस प्रकार एक ही वस्तुमें वस्तुत्वको प्रतिपादन करनेवाला एवं परस्पर विरुद्ध शक्तिद्वयको ही प्रकाशित करनेवाला अनेकान्त है । इसीको स्पष्ट करते हैं
जैसे आत्माको ज्ञानमात्र कहा है । यहाँ यद्यपि आत्मा अन्तरंग में दैदीप्यमान ज्ञानस्वरूपकी अपेक्षा तत्स्वरूप है तथापि बाह्यमें प्रकटरूप जो अनन्त ज्ञेय हैं, वह जब ज्ञानमें प्रतिभासित होते हैं तब ज्ञानमें उनका विकल्प होता है । इस प्रकार ज्ञेयतापन्न जो ज्ञानका रूप है जो ज्ञानस्वरूपसे भिन्न पररूप है उसकी अपेक्षा अतत्स्वरूप भी है अर्थात् ज्ञान ज्ञेयरूप नहीं होता । सहप्रवृत्त और क्रमप्रवृत्त अनन्त चिदशोंके समुदाय जो अविभागी एक द्रव्य है उसकी अपेक्षा एकस्वरूप हैं । अर्थात् द्रव्यमें जितने गुण हैं वे अन्वयरूपसे ही उसमें सदा रहते हैं, विशेषरूपसे नहीं। ऐसा नहीं है कि प्रथम समयमें जितने गुण हैं वे ही द्वितीय समयमें रहते हों और वे ही अनन्त कालतक रहे आते हों । चूँकि पर्याय समय समयमें बदलती रहती है और द्रव्यमें जितने गुण हैं वे सब पर्यायशून्य नहीं है, अतः गुणोंमें भी परिवर्तन होना अनिवार्य है। इससे सिद्ध यह हुआ कि गुण सामान्यतया ध्रौव्यरूप रहते हैं पर विशेषकी अपेक्षा वे भी उत्पादव्ययरूप होते हैं। इसका खुलासा यह है कि जो गुण पहले जिसरूप था वह दूसरे समयमें अन्यरूप हो जाता है। जैसे जो आम्र अपनी अपक्व अवस्था में हरित होता है वही पक्व अवस्थामें पीत हो जाता है । यहाँ हरितत्व और पीतत्वकी अपेक्षा रूपमें परिवर्तन हुआ है पर सामान्यरूपकी अपेक्षा क्या हुआ ? दोनों ही दशाओंमें रूप तो रहता ही है । इस प्रकार एक ही अविभागी द्रव्य, अपने सहभावी गुणों और क्रमभावी पर्यायोंकी अपेक्षा अनेकरूपसे व्यवहृत होता है। अर्थात् सह-क्रम प्रवृत्त चिदंश समुदायरूप अविभागी द्रव्यकी अपेक्षा तो आत्मा एक स्वरूप है और चिदंशरूप पर्यायोंकी विवक्षासे अनेक स्वरूप हैं। एवं स्वद्रव्य क्षेत्र काल भावरूप होनेके योग्य जो शक्ति है, अतः उसके स्वभावसे जब वस्तुका निरूपण करते हैं तब वस्तु सत्स्वरूप होती है और परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप होनेके योग्य जो शक्ति है, अतः उसके अभावरूपसे जब वस्तुका निरूपण करते हैं तब असत्स्वरूप होती है। श्री समन्तभद्रस्वामीने कहा है कि
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'सदेव सर्वं को नेच्छेत्स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते । ।'
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