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________________ मेरी जीवनगाथा 200 'न सामान्यात्मनोदेति न व्येति व्यक्तमन्वयात्। व्येत्युदेति विशेषात्ते सहैकत्रोदयादि सत्।। जैसे पदार्थ नित्यानित्यात्मक है वैसे ही तत्-अतत्, सत्-असत् और एकानेकरूप भी है। जैसे एक आत्मा द्रव्य लीजिये, वह तत् भी है, अतत् भी है, एक भी है, अनेक भी है, सत् भी है, असत् भी है तथा नित्य भी है, अनित्य भी है। यहाँपर आपाततः प्रत्येक मनुष्यको यह शंका हो सकती है कि इस प्रकार परस्पर विरोधी धर्म एक स्थान पर कैसे रह सकते हैं और इसीसे वेदान्तसूत्रमें व्यासजीने एक स्थान पर लिखा है-'नैकस्मिनसंभवात्' अर्थात् एक पदार्थमें परस्पर विरुद्ध नित्यत्वानित्यत्वादि नहीं रह सकते। परन्तु जैनाचार्योंने स्याद्वाद सिद्धान्तसे इन परस्पर विरोधी धर्मोंका एक स्थानमें भी रहना सिद्ध किया है और वह युक्तियुक्त भी है, क्योंकि वह विरोधी धर्म विभिन्न अपेक्षाओंसे एक वस्तुमें रहते हैं, न कि एक ही अपेक्षासे । देवदत्त पिता है और पुत्र भी है। परन्तु एककी ही अपेक्षा उक्त दोनों रूप देवदत्तमें सिद्ध नहीं हो सकते। वह अपने पुत्रकी अपेक्षा पिता है और अपने पिताकी अपेक्षा पुत्र भी है। इसी प्रकार सामान्यकी अपेक्षा पदार्थ नित्य है-उत्पाद और विनाशसे रहित है तथा विशेषकी अपेक्षा अनित्य है-उत्पाद और विनाशसे युक्त है। सामान्यकी अपेक्षा पदार्थ एक है, परन्तु अपनी पर्यायोंकी अपेक्षा वही पदार्थ अनेक हो जाता है। जैसे सामान्यजलत्वकी अपेक्षासे जल एक है, परन्तु तत्तत्पर्यायोंकी अपेक्षा वही जल तरंग, बबूला, हिम आदि अनेक रूप होता देखा जाता है। जैनाचार्योंने स्याद्वाद सिद्धान्तसे उक्त धर्मोंका अच्छा समन्वय किया है। देखिये'स्याद्वादो हि सकलवस्तुतत्त्वसाधकमेकमस्खलितं साधनमर्हदेवस्य । स तु सर्वमनेकान्तमनुशास्ति, सर्वस्य वस्तुनोऽनेकान्तात्मकत्वात् । अत्र त्वात्मवस्तुनो ज्ञानमात्रतयानुशास्यमानोऽपि न तत्परिदोषः, ज्ञानमात्रस्यात्मवस्तुनः स्वयमेवानेकान्तात्मकत्वात् । तत्र यदेव तत् तदेवातत्, यदेवैकं तदेवानेकम्, यदेव सत् तदेवासत्, यदेव नित्यं तदेवानित्यमित्येकवस्तुवस्तुत्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्ति द्वयप्रकाशनमनेकान्तः। तत्स्वात्मकवस्तुनो ज्ञानमात्रत्वेऽप्यन्तश्चकचकायमानरूपेण तत्त्वात् बहिरुन्मिषदनन्तज्ञेयतापन्नस्वरूपतातिरिक्तपररूपेणातत्त्वात्, सहक्रमप्रवृत्तानन्तचिदंशसमुद यरूपाविभागैकद्रव्येणैकत्वाद् अविभागैकद्रव्यव्याप्तसहक्रमप्रवृत्तानन्तचिदंशरूपर्यायैरनेकत्वात्, स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावभवनशक्तिस्वभावत्वेनसत्त्वात् , परद्रव्यक्षेत्रकालभावभवनशक्तिस्वभावत्त्वे नासत्वात्, अनादिनिधनाविभागैकवृत्तिपरिणतत्वेन नित्यत्वात् क्रमप्रवृत्तैकसमयावच्छिन्नाने कवृत्त्यंशपरिणतत्वैनानित्यत्वात्, तदतत्त्वमेकानेकत्वं सदसत्त्वं नित्यानित्यत्वञ्च प्रकाशत एव । ननु यदि ज्ञानमात्रत्वेऽप्यात्मवस्तुनः स्वयमेवानेकान्तः प्रकाशते तहिं किमर्थमर्हदि भस्तत्साधनत्वेनानुशास्यतेऽनेकान्तः ? अज्ञानिनां ज्ञानमात्रात्मवस्तुप्रसिद्ध्यर्थमिति ब्रूमः। न खल्वनेकान्तमन्तरेण ज्ञानमात्रमात्मवस्त्वेव प्रसिद्ध्यति। तथाहि-इह हि स्वभावत एव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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