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कलशोत्सवमें श्री पं. अम्बादासजी शास्त्रीका भाषण
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कभी देव तो कभी नारकी हो जाता है तथा उन-उन पर्यायोंके अनुकूल अनन्त दुःखोंका पात्र होता है। इसी से आर्ष उपदेश प्रव्रज्या ग्रहण करनेका है।
यहाँ पर कोई कहता है कि यदि पर्यायके साथ द्रव्यका तादात्म्य सम्बन्ध है तो वह पर्याय विनष्ट क्यों हो जाती है ? इसका यह अर्थ है कि तादात्म्य सम्बन्ध एक तो नित्य होता है और एक अनित्य होता है। पर्यायोंके साथ जो सम्बन्ध है वह अनित्य है और गुणोंके साथ जो सम्बन्ध है वह निरन्तर रहता है, अतः नित्य है। इसलिए आचार्योंने गुणोंको सहभावी और पर्यायोंको क्रमवर्ती माना है। यही कारण है कि जो गुण परमाणुमें हैं वे ही स्कन्धमें हैं, परन्तु जो पर्यायें इस समयमें हैं वे दूसरे समयमें नहीं हो सकतीं। यदि यह अवस्था न मानी जावे तो किसी पदार्थकी व्यवस्था नहीं बन सकती। जैसे, सुवर्णको लीजिये, उसमें जो स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण हैं वे सोना चाहे किसी भी पर्यायमें रहे, रहेंगे। केवल उसकी पर्यायोंमें ही पलटन होगा।
यही व्यवस्था जिन द्रव्योंको सर्वथा नित्य माना है उनमें है। यदि संसार अवस्थाका नाश न होता तो मोक्षका कोई पात्र न होता। इससे यह सिद्ध हुआ कि संसारमें ऐसी कोई तो वस्तु नहीं जो नित्यानित्यात्मक न हो। तथाहि
'आदीपमाव्योम समस्वभावं
स्याद्वादमुद्रानतिभेदि वस्तु। तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्य
दिति त्वदाज्ञाद्विषतां प्रलापः ।।' कहनेका तात्पर्य यह है कि दीपकसे लेकर आकाश पर्यन्त सभी पदार्थ नित्यानित्यात्मक हैं, इसको सिद्ध करनेवाली स्याद्वाद मुद्रा है। उनमें दीपकको सर्वथा अनित्य और आकाशको सर्वथा नित्य माननेवाले जो भी पुरुष हैं वे आपकी आज्ञाके वैरी हैं। यदि दीपक, घट, पटादि सर्वथा अनित्य ही होते तो आज संसारका विलोप हो जाता। केवल दीपक पर्यायका नाश होता है न कि पुद्गलके जिन परमाणुओंसे दीपक पर्याय बनी है उनका नाश होता है। तत्त्वकी बात यह है कि न तो किसी पदार्थका नाश होता है और न किसी पदार्थकी उत्पत्ति होती है। मूल पदार्थ दो है-जीव और अजीव । न ये उत्पन्न होते हैं और न नष्ट होते हैं। केवल पर्यायोंकी उत्पत्ति होती है और उन्हींका विनाश होता है। सामान्यरूपसे द्रव्यका न तो उत्पाद है और न विनाश है। परन्तु विशेषरूपसे उत्पाद भी है और विनाश भी है। तथाहि
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