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________________ मेरी जीवनगाथा 198 होनेसे वह चक्षुरिन्द्रियके विषय हो जाते हैं। कहनेका तात्पर्य यह है कि वे सब परमाणु जितने थे उतने ही स्कन्ध दशामें हैं। केवल उनकी जो सूक्ष्म पर्याय थी वह स्थूल भावको प्राप्त हो गई। एवं यदि कारण से कार्य सर्वथा भिन्न हो तो कार्य होना असम्भव हो जावे, क्योंकि संसारमें जितने कार्य हैं वे निमित्त और उपादान कारणसे उत्पन्न होते हैं। उनमें निमित्त तो सहकारीमात्र है पर उपादान कारण कार्यरूप परिणमनको प्राप्त होता है। जिस प्राकर सहकारी कारण भिन्न है उस प्रकार उपादान कारण कार्यसे सर्वथा भिन्न नहीं है। किन्तु उपादान अपनी पूर्वपर्याय को त्याग कर ही उत्तर अवस्थाको प्राप्त होता है। इसी उत्तर अवस्थाका नाम कार्य है। यह नियम सर्वत्र लागू होता है। आत्मामें भी यह नियम लागू होता है। आत्मा भी सर्वथा भिन्न कार्यको उत्पन्न नहीं करती। जैसे, सब आस्तिक महाशयोंने आत्माकी संसार और मुक्ति दो दशाएँ मानी हैं। यहाँ पर यह प्रश्न स्वाभाविक है कि यदि कारणसे कार्य सर्वथा भिन्न है तो संसार और मुक्ति ये दोनों कार्य किस द्रव्यके अस्तित्वमें हैं ? सिद्ध करना चाहिये। यदि पुद्गल द्रव्यके अस्तित्वमें है तो आत्माको भक्ति, प्रव्रज्या, संन्यास, यम, नियम, व्रत, तप आदि का उपदेश देना निरर्थक है, क्योंकि आत्मा तो सर्वथा निर्लेप है, अतः अगत्या मानना पड़ेगा कि आत्माकी ही अशुद्ध अवस्थाका नाम संसार है। अब यहाँ पर यह विचारणीय है कि यदि संसार अवस्था आत्माका कार्य है और कारणसे कार्य सर्वथा भिन्न है तो आत्माका उससे क्या बिगाड़ हुआ ? उसे संसार मोचनेके लिए जो उपदेश दिया जाता है उसका क्या प्रयोजन है ? अतः कहना पड़ेगा कि जो अशुद्ध अवस्था है वह आत्माका ही परिणमन विशेष है। वही आत्माको संसारमें नाना यातनाएँ देता है, अतः उसका त्याग करना ही श्रेयस्कर है। जैसे, जल स्वभाव से शीत है परन्तु जब अग्निका सम्बन्ध पाता है तब उष्णावस्थाको प्राप्त हो जाता है। इसका यह अर्थ हुआ कि जिस प्रकार जलका पहले शीतपर्यायके साथ तादात्म्य था उसी प्रकार अब उष्णपर्यायके साथ तादात्म्य हो गया। परन्तु जलत्वकी अपेक्षा वह नित्य रहा। यह ठीक है कि जल की उष्ण पर्याय अस्वाभाविक है-परपदार्थजन्य है, अतः हेय है। इसी तरह आत्मा एक द्रव्य है। उसकी जो संसार पर्याय है वह औपाधिक है। उसके सदभावमें आत्माके विकृत परिणाम होते हैं जो कि आत्मा के लिये अहितकर हैं। जैसे, जब तक आत्माकी संसार अवस्था रहती है तब तक यह आत्मा ही कभी मनुष्य हो जाता है, कभी पशु बन जाता है, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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