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कलशोत्सवमें श्री पं. अम्बादासजी शास्त्रीका भाषण
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यह सिद्धान्त निर्विवाद है कि पदार्थ चाहे नित्य मानो, चाहे अनित्य, किसी न किसी रूपसे रहेगा ही। यदि नित्य है तो किस अवस्थामें है ? यहाँ दो ही विकल्प हो सकते हैं। या तो शुद्ध स्वरूप होगा या अशुद्ध स्वरूप होगा। यदि शुद्ध है तो सर्वथा शुद्ध ही रहेगा, क्योंकि सर्वथा नित्य ही माना है और इस दशामें संसार प्रक्रिया न बनेगी। यदि अशुद्ध है तो सर्वथा संसार ही रहेगा और ऐसा माननेसे संसार एवं मोक्षकी जो प्रक्रिया मानी है उसका लोप हो जावेगा, अतः सर्वथा नित्य मानना अनुभवके प्रतिकूल है।
यदि सर्वथा अनित्य है ऐसा माना जाय तो जो प्रथम समयमें है वह दूसरेमें न रहेगा और तब पुण्य-पाप तथा उसके फलका सर्वथा लोप हो जावेगा। कल्पना कीजिये, किसी आत्माने किसीके मारनेका अभिप्राय किया। वह क्षणिक होनेसे नष्ट हो गया। अन्यने हिंसा की। क्षणिक होनेके कारण हिंसा करनेवाला भी नष्ट हो गया। बन्ध अन्यको होगा। क्षणिक होनेसे बन्धक आत्मा नष्ट हो गया। फलका भोक्ता अन्य ही हुआ। इस प्रकार यह क्षणिकत्वकी कल्पना श्रेष्ठ नहीं । प्रत्यक्ष विरोध आता है, अतः केवल अनित्यकी कल्पना सत्य नहीं। जैसा कि कहा भी है
'परिणामिनोऽप्यभावात्क्षणिकं परिणाममात्रमिति वस्तु। । तस्यामिह परलोको न स्यात्कारणमथापि कार्यं वा ।।'
बहुतोंकी यह मान्यता है कि कारणसे कार्य सर्वथा भिन्न है। कारण वह कहलाता है जो पूर्वक्षणवर्ती हो और कार्य वह है जो उत्तरक्षणवर्ती हो। परन्तु ऐसा माननेमें सर्वथा कार्यकारणभाव नहीं बनता। जब कि कारणका सर्वथा नाश हो जाता है तब कार्यकी उत्पत्तिमें उसका ऐसा कौनसा अंश शेष रह जाता है जो कि कार्यरूप परिणमन करेगा ? कुछ ज्ञानमें नहीं आता। जैसे, दो परमाणुओंसे व्यणक होता है। यदि वे दोनों सर्वथा नष्ट हो गये तो व्यणक किससे हुआ ? समझमें नहीं आता। यदि सर्वथा असतसे कार्य होने लगे तो मृपिण्डके अभावमें भी घटकी उत्पत्ति होने लगेगी ! पर ऐसा देखा नहीं जाता। इससे सिद्ध होता है कि परमाणुका सर्वथा नाश नहीं होता, किन्तु जब वह दूसरे परमाणुके साथ मिलनेके सम्मुख होता है तब उसका सूक्ष्म परिणमन बदलकर कुछ वृद्धिरूप हो जाता है और जिस परमाणुके साथ मिलता है उसका भी सूक्ष्म परिणमन बदलकर वृद्धिरूप हो जाता है |...... इसी प्रकार जब बहुतसे परमाणुओं का सम्बन्ध हो जाता है तब स्कन्ध बन जाता है। स्कन्ध दशामें उन सब परमाणुओंका स्थूलरूप परिणमन हो जाता है। और ऐसा
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