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मेरी जीवनगाथा
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दूर होते गये। पढ़ाईके लिये अध्यापक उच्च श्रेणीके थे, अतः उस ओरसे मैं निश्चिन्त रहता था। परन्तु धनकी चिन्ता निरन्तर रहा करती थी। यद्यपि पाठशालाके सभापति श्री सिंघई कुन्दनलालजी और उपसभापति श्री चौधरी कन्हैयालाल हकमचन्द्रजी मानिक चौकवाले हमको निरन्तर साहस और उपदेश दिया करते थे कि आप चिन्ता मत करो, अनायास ही कोष हो जावेगा, तथापि मेरी चिन्ता कम न होती थी। सिंघईजी तथा चौ. हुकुमचन्द्रजीके द्वारा गल्ले बाजारसे अच्छी आमदनी हो जाती थी। घीके दलाल श्री मनसुखलाल हजारीलाल, गिरिधारीलाल पल्टूराम, गुँचेलाल खूबचन्द्र तथा अनन्तरामजी आदिकी पूरी सहायता थी और किरानाके व्यापारी श्री प्यारेलाल किशोरीलाल मलैया, हीरालाल टीकाराम मलैया, सिंघई राजाराम मुन्नालालजी और सिंघई मौजीलाल लखमीचन्द्रजी पूर्ण सहायता देते थे......पर यह सब चल सहायता थी। इनकी सहायतासे जो आता था वह खर्च होता जाता था, अतः मूलधन की व्यग्रता निरन्तर रहा करती थी। कुछ भी रहो, परन्तु जब मैं मोराजीके विशाल प्रांगणमें बहुतसे छात्रोंको आनन्दसे एक साथ खेलते-कूदते और विद्याध्ययन करते देखता था तब मेरा हृदय हर्षातिरेकसे भर जाता था ।
कलशोत्सवमें श्री पं. अम्बादासजी शास्त्रीका भाषण
संवत् १६७२ की बात है। सागरमें श्री टीकाराम प्यारेलालजी मलैयाके यहाँ कलशोत्सवका आयोजन हुआ। उसमें पण्डितोंके बुलानेका भार मेरे ऊपर छोड़ा गया। मैंने भी सब पण्डितोंके बुलानेकी व्यवस्था की, जिसके फलस्वरूप श्रीमान् पण्डित माणिकचन्द्रजी न्यायाचार्य, श्रीमान् पं. बंशीधरजी सिद्धान्तशास्त्री, श्रीमान् व्याख्यानवाचस्पति पं. देवकीनन्दनजी, श्रीमान् वाणीभूषण पं. तुलसीरामजी काव्यतीर्थ तथा श्रीमान निखिल विद्यावारिधि पण्डित अम्बादासजी शास्त्री जो कि हिन्दू विश्वविद्यालय बनारसमें संस्कृतके प्रिन्सिपल थे, इस उत्सवमें सम्मिलित हुए। आपका शान्दार स्वागत हुआ। उसी समय आयोजित आमसभामें जैनधर्मके अनेकान्तवादपर आपका मार्मिक भाषण हुआ, जिसे श्रवण कर अच्छे-अच्छे विद्वान् लोग मुग्ध हो गये। आपने सिद्ध किया कि-'पदार्थ नित्यानित्यात्मक है, अन्यथा संसार और मोक्षकी व्यवस्था नहीं बन सकती, क्योंकि सर्वथा नित्य माननेमें परिणाम नहीं बनेगा। यदि परिणाम मानोगे तो नित्य माननेमें विरोध होगा। श्री समन्तभद्र स्वामीने लिखा है
'नित्यत्वैकान्तपक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते। प्रागेव कारकाभावः क्व प्रमाणं क्व तत्फलम् ।।'
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