________________
मेरी जीवनगाथा
194
चैत्यालयके मकानमें रहना उचित नहीं।
चार दिनमें मकान दुरुस्त हो गया और पाठशाला उसमें आ भी गई, परन्तु उसमें कई कष्ट थे। यदि एक हजार रुपया मरम्मतमें लगा दिये जावें तो सब कष्ट दूर हो जावें, पर रुपये कहाँ से आवें ? पाठशालामें विशेष धन न था। माँग चूँगकर काम चलता था। पर दैव बलवान् था। श्री बट्टे दाऊ, जो कि रेली ब्रदर्सके दलाल थे, मुझे चिन्तित देखकर बोले कि इतने चिन्तित क्यों हो ? मैंने कहा कि 'जो पाठशाला चमेली चौकमें थी वह श्री ढाकनलाल सिंघईके मकानमें आ गई। परन्तु वहाँ अनेक कष्ट हैं। मकान स्वच्छ नहीं। वह अभी एक हजार रुपया मरम्मत के लिये चाहता है। पाठशालाके पास द्रव्य नहीं, कैसे काम चले ?'
आप उसी वक्त हमारे साथ पाठशालामें आये और जहाँ श्री ढाकनलाल सिंघईके बैठनेका स्थान था, एक कुदारी मँगाकर वहाँ आपने खोदा तो तीन सौ रुपये मिल गये। दूसरे दिनसे मरम्मतका काम चालू कर दिया। अब एक कच्ची अटारी थी, हमने दाऊसे कहा कि इसे गिरवा कर छत बनवा दी जावे। दाऊने कहा कि ठीक है-वहीं पर उन्होंने एक भीत खोदी, जिससे सात सौ रुपये मिल गये। इस तरह एक हजार रुपयेमें अनायास ही पाठशालाके योग्य मकान बन गया और आनन्द पूर्वक बालक पढ़ने लगे।
मेरे हृदयमें यह बात सदा शल्यकी तरह चुभती रहती थी कि इस प्रान्तमें यह एक ही तो पाठशाला है, पर उसके पास निजका मकान तक नहीं। वह अपने थोड़े ही कालमें तीन मकानोंमें रह चुकी-'आज यहाँ कल वहाँ ।' इन दरिद्रों जैसी दशामें यह पाठशाला किस प्रकार चल सकेगी।
मोराजीके विशाल प्रांगणमें श्री ढाकनलाल सिंघईके मकानमें भी विद्यालयके उपयुक्त स्थान नहीं था, किसी तरह गुजर ही होती थी। गृहस्थीके रहने लायक मकान और विद्यालयके उपयुक्त मकानमें बड़ा अन्तर होता है।
श्री बिहारीलालजी मोदी और सिंघई रज्जीलालजी मन्दिरके मुंतजिम थे। उन्होंने एक दिन मुझसे कहा कि 'यदि विद्यालयको पुष्कल जमीन चाहते हो तो श्री मोराजीकी जगह, जिसमें कि एक अपूर्व दरवाजा है, जो आज पच्चीस हजारमें न बनेगा तथा मधुर जलसे भरे हुए दो कूप हैं, पाठशालाके संचालकोंको दे सकते हैं। किन्तु पाठशालावाले यह प्रतिज्ञापत्र लिख देवें कि
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org