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आज यहाँ, कल वहाँ
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कुन्दकुन्द भगवान् हैं। उनके विषयमें हम क्या कहें ? उनकी प्रत्येक गाथामें अध्यात्मरस टपकता है।'
उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। इसके बाद हम दोनों राहतगढ़ पहुंचे। यहाँ पर एक नदी ग्रामके पास बहती है, एक छोटा-सा दुर्ग है जो कि समभागसे सौ फुटकी ऊँचाई पर है, उसके मध्यमें एक बड़ा भारी पानीका कुण्ड है जो बहुत गहरा है और जिसे देखनेमें भय मालूम होता है। नदीके तट पर ग्रामसे दो मील दूर कई प्राचीन जिनमन्दिर भग्न पड़े हुए हैं। उनमें बहुत विशालकाय प्रतिमाएँ विराजमान हैं। पूजन-पाठका कोई प्रबन्ध नहीं। वहाँकी व्यवस्था देखकर मार्मिक वेदना हुई, परन्तु कर क्या सकते थे ? अन्तमें यह अच्छा हुआ कि वे सभी प्रतिमाएँ सागर ले आई गईं और श्री चौधरनबाईके मन्दिर में विराजमान कर दी गईं। यहाँ मन्दिरके प्रबन्धक अच्छी तरहसे उनकी पूजादिका प्रबन्ध करते हैं और यथावसर कलशाभिषेक आदि उत्सव करते रहते हैं। हमारा और रज्जीलालजीका यहाँसे विशेष परिचय हो गया। यहाँसे हम दोनों सागर वापिस आ गये।
श्री समैया जवाहरलालजी जो कि चैत्यालयके प्रबन्धक थे और जिनकी कृपासे सत्तर्कसुधातरंगिणी पाठशालाको चमेलीचौकमें विशाल भवन मिला था। न जाने उनके मनमें क्या विचार आया। मुझे बुलाकर कहने लगे कि यदि आप चमेली चौकमें पाठशाला रखना चाहते हैं तो बकायदा किरायनामा लिख दीजिये, क्योंकि आपकी पाठशालाको यहाँ रहते हुए दस वर्ष हो गये। कुछ दिन और रहने पर आपके अधिकारी वर्ग सर्वथा कब्जा कर लेंगे, हम लोग ताकते ही रह जावेंगे। मैंने बहुत कुछ कहा कि आप निश्चिन्त रहिये, कुछ न होगा। अन्तमें वह बोले-'हम कुछ नहीं जानते। या तो पन्द्रह दिनमें मकान खाली करो या किरायनामा लिख दो।'
क्या किया जावे। बड़ी असमंजसमें पड़ गये; क्योंकि तीस लड़के अध्ययन करते थे, उनके योग्य मकान मिलना कठिन था। इतने में श्री बिहारी मोदी और श्री रज्जीलाल सिंघई बोले कि आप चिन्ता मत करें। श्री स्वर्गीय ढाकनलालजीका मकान जो कि घटियाके मन्दिरसे लगा हुआ है, उसमें पाठशाला ले चलो और अभी-अभी चलो, उसे देख लो। हम सब मकान देखनेके लिये गये और देखकर निश्चय किया कि इसे झाड़ बुहारकर स्वच्छ किया जावे। अनन्तर पाठशाला इसीमें लाई जावे। इतने अनादरके साथ
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