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मेरी जीवनगाथा
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पकड़ा गया तो कारागारकी हवा खावेगा और जुर्माना भुगतना पड़ेगा तथा जब आप तलाशी लेवेंगे तब निरपराध व्यक्तियोंको भी सन्देहमें पकड़कर पिटवायेंगे और इस तरह कितने ही निरपराध दण्ड पावेंगे तथा दरोगा साहब जितने दिन चोरीका पता लगानेमें रहेंगे उतने दिन हलुवा, पुड़ी और रबड़ी खानेके लिये देनी पड़ेगी। दैवयोगसे पता भी लग गया, परन्तु यदि दरोगा साहबको लालचने धर दबाया तो चोरसे आधा माल लेकर उसे भगा देंगे और आप पुलिस स्थानपर चले जावेंगे। अन्तमें जिसकी चोरी हुई वह हाथ मलते रह जावेगा। उनका कोई दोष नहीं। परिग्रहका स्वरूप ही यह है। इसके वशीभूत होकर अच्छे-अच्छे महानुभाव चक्करमें आ जाते हैं। संसारमें सबसे प्रबल पाप परिग्रह है। किसी कविने ठीक ही तो कहा है
"कनक कनक तें सौगुनी मादकता अधिकाय।
वह खाये बौरात है यह पाये बौराय ।।' विशेष क्या कहूँ ? बाईजी ५ दिन रहकर, जो आदमी आया था, उसके साथ सिमरा चली गईं और मैं सागर चला आया।
कुछ दिनोंके बाद बाईजीका पत्र आया-'भैया ! आशीर्वाद । मैं सोनागिरिसे सिमरा आई। चोरी कुछ नहीं हुई। चोर आये और जिस भण्डरियामें सोना रक्खा था, उसीमें १०) के गजाशाही पैसा रक्खे थे। उन्होंने पैसाकी जगह खोदी। सोना छोड़ गये और पैसा कोठरीमें बिखेर गये तथा दाल चावल भी बिखेर गये। क्यों ऐसा किया सो वे जानें। कहनेका तात्पर्य यह है कि पाव आना भी नहीं गया। तुम कोई चिन्ता न करना।'
मुझे हर्ष हुआ और मनमें आया कि सुकृतका पैसा जल्दी नष्ट नहीं होता।
आज यहाँ, कल वहाँ सागरमें श्री रज्जीलालजी कमरया रहते थे। मेरा उनसे विशेष परिचय नहीं था। शास्त्र प्रवचनके समय आप आते थे। उसी समय उन्हें देखता था। उन्हें किसी कार्यवश राहतगढ़ जाना था। मुझसे बोले कि आप भी राहतगढ़ चलिये। मैंने कहा-'अच्छा चलिये।' मार्गमें अनेक चर्चायें होती रहीं। अन्तमें उन्होंने कहा कि 'कुछ हमारे लिये भी उपदेश दीजिये। मैंने कहा-'आप श्री जिनेन्द्रदेवकी पूजा तो करते ही हैं और स्वाध्याय भी। यदि आप मुझसे पूछते हैं तो मेरी सम्मत्यनुसार आप समयसारका स्वाध्याय कीजिये। उनमें आत्मतत्त्वके विषयमें बहुत ही स्पष्ट और सरल रीतिसे व्याख्यान हैं तथा उसके रचयिता श्री
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