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मेरी जीवनगाथा
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अस्पतालकी दवा खाते हैं, जहाँ भँगी और मुसलमानोंके द्वारा दवा दी जाती है। उस दवामें मांस, मदिरा और मधुका संयोग अवश्य रहता है। बड़े आदमियोंकी बात करो तो यह लोग न जाने हम लोगोंकी क्या दशा करेंगे ? अतः इनकी बात न करना ही अच्छा है। अपनेको क्या करना है ? 'जो करेगा सो भोगेगा ?' परन्तु बात तो यह है कि जो बड़े पुरुष आचरण करते हैं वही नीच श्रेणीके करने लग जाते हैं। जो भी हो, हमको क्या करना है ?' वह फिर कहने लगा कि 'वर्णीजी ! कुछ चिन्ता न करना, हमने जो व्रत लिया है, मरण पर्यन्त कष्ट सह लेने पर भी उसका भंग न करेंगे। अच्छा, अब जाते हैं। ......यह कहकर वे चले गये और हम लोग आनन्द-सागरमें निमग्न हो गये। मुझे ऐसा लगा कि धर्मका कोई ठेकेदार नहीं है।
रसखीर __ भोजन करके बैठे ही थे कि वर्णी मोतीलालजी आ गये। उनके साथ भी वही कहारवाली बातचीत होती रही। दूसरे दिन विचार हुआ कि आज रसखीर खाना चाहिये। श्री सर्राफ मूलचन्द्रजीने रस मँगवाया। हम और वर्णी मोतीलालजी उसके सिद्ध करनेमें लग गये। बाईजीने कहा-'भैया ११ बज गये, अब भोजन कर लो। हमने एक न सुनी और खीरके बनाने में ११।। बजा दिये। सामायिकका समय हो गया, अतः निश्चय किया कि पहले सामायिक किया जाय और बादमें निश्चिन्तताके साथ भोजन।
सामायिकके बाद १२ ।। बजे हम दोनों भोजनके लिये बैठे। बाईजीने कहा-'अच्छी खीर बनायी। मैंने उत्तर दिया-'उत्तम पदार्थका मिलना कठिनतासे होता है। बाईजी ठीक कहकर रोटी परोसने लगीं। मैंने कहा-'पहले खीर परोसिये। उन्होंने कहा-'भोजनके पश्चात् खाना। हमने कहा-'जब पेट भर जावेगा तब क्या खावेंगे? उन्होंने कहा-'अभी खीर गरम है। हमने कहा-'थालमें ठण्डी हो जावेगी।' उन्होंने खीर परोस दी। हमने फैलाकर ग्रास हाथमें लिया। एक ग्रास मोतीलालजीने भी हाथमें लिया। एक-एक ग्रास मुँहमें जानेके बाद ज्यों ही दूसरा ग्रास उठाने लगे त्यों ही दो मक्खियाँ परस्पर लड़ती हुई आई और एक हमारी तथा दूसरी मोतीलालजीकी थालीमें गिर गई। खीर गरम थी, अतः गिरते ही दोनोंका प्राणान्त हो गया। अन्तराय आ जानेसे हम दोनों उस दिन भोजनसे वञ्चित रहे। बाईजी बोली-'भैया ! लोलुपता अच्छी नहीं।' मैं सुनकर चुप रह गया।
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