SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 214
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मका ठेकेदार कोई नहीं 189 प्रकार हम, बाईजी और मूलचन्द्रजी परस्पर कथा करने लगे। इतनेमें वह लड़की बोली- 'वर्णीजी ! हम तीनोंको क्या आज्ञा है ?' मैंने कहा - 'बेटी तुमको धन्यवाद देता हूँ। आज तूने वह उत्कृष्ट कार्य किया जो महापुरुषों द्वारा साध्य होता है । तुम्हारे माता- पिताने जो हिंसाका त्याग किया है श्लाघनीय है, तुमसे सर्राफ बहुत प्रसन्न है और तुम लोगोंको जिसकी आवश्यकता पड़े, सर्राफसे ले सकते हो।' उस लड़कीका पिता बोला- मैंने हिंसा का त्याग किया है। उसका यह तात्पर्य नहीं कि आप लोगोंसे कुछ याचना करनेके लिए आया हूँ। मैं तो केवल आप लोगोंको अहिंसक जानकर आपके सामने उस पापको छोड़नेके लिये आया हूँ । आपसे क्या माँगू ? हमारा भाग्य ही ऐसा है कि मजदूरी करना और जो मिले, संतोष से खाना । आज तक मछलियाँ मारकर उदर भरते थे, अब मजदूरी करके उदर पोषण करेंगे। अभी तो हमने केवल हिंसा करना ही छोड़ा था, पर अब यह नियम करते हैं कि आजसे मांस भी नहीं खावेंगे तथा हमारे यहाँ जो देवीका बलिदान होता था वह भी नहीं करेंगे । कोई-कोई वैष्णव लोग बकराके स्थानमें भूरा कुम्हड़ा चढ़ाते हैं, हम वह भी नहीं चढ़ावेंगे। केवल नारियल चढ़ावेंगे। बस, अब हम लोग जाते हैं, क्योंकि खेत नोंदना है।........ इतना कहकर वे तीनों चले गये और हम लोग भी उन्हींकी चर्चा करते हुए अपने स्थान पर चले आये। इतनेमें बाईजी बोलीं- 'बेटा! तुम भूल गये । ऐसे भद्र जीवोंको मदिरा और मधु भी छुड़ा देना था।' मैंने कहा- 'अभी क्या बिगड़ा है ? उन्हें बुलाता हूँ, पास ही तो उनका घर है ?' मैंने उन्हें पुकारा । वे तीनों आ गये। मैंने उनसे कहा- 'भाई ! हम एक बात भूल गये । वह यह कि आपने मांस खाना तो छोड़ दिया, पर मधु और मदिरा नहीं छोड़ी, अतः उन्हें भी छोड़ दीजिए।' लड़की बोली- 'हाँ पिताजी ! वही मधु न जो दवाईमें कभी-कभी काम आती है । वह तो बड़ी बुरी चीज है। हजारों मक्खियाँ मारकर निचौड़ी जाती हैं। छोड़ दीजिये और मदिरा तो हम तथा माँ पीती ही नहीं हैं। तुम्हीं कभी-कभी पीते हो और उस समय तुम पागलसे हो जाते हो। तुम्हारा मुँह बसाने लगता है।' बाप बोला- 'बेटी ! ठीक है जब मांस ही जिससे कि पेट भरता था, छोड़ दिया तब अब न मदिरा पीवेंगे और न मधु ही खावेंगे। हम जो प्रतिज्ञा करते हैं उसका निर्वाह भी करेंगे। हम वर्णीजी और बाईजीकी बात तो नहीं कहते, क्योंकि वह साधु लोग हैं । परन्तु बड़े-बड़े जैनी व ब्राह्मण लोग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy