________________
मेरी जीवनगाथा
188
और उसपर वह जाल रखने लगा। इतनेमें उसकी स्त्री बोली कि 'व्यर्थ ही क्यों जलाते हो। इसको बेचनेसे दो रुपये आजावेंगे और उनसे एक धोती जोड़ी लिया जा सकेगा ।' पुरुष बोला कि 'यह हिंसाका आयतन है। जहाँ जावेगा वहीं हिंसा में सहकारी होगा, अतः नंगा रहना अच्छा परन्तु जालको बेचना अच्छा नहीं।' इस तरह उसने बातचीतके बाद उस जालको जला दिया और स्त्री-पुरुष ने प्रतिज्ञा की कि अब आजन्म हिंसा न करेंगे।
यह कथा हम और बाईजी सुन रहे थे, बहुत ही प्रसन्नता हुई और मनमें विचार आया कि देखो समय पाकर दुष्टसे दुष्ट भी सुमार्ग पर आजाते हैं। जाति कहार अपने आप अहिंसक हो गये। बालिका यद्यपि अबोध थी, पर उसने किस प्रकार समझाया कि अच्छेसे अच्छे पण्डित भी सहसा न समझा सकते ।
इसके अनन्तर ओला पड़ना बन्द हुआ । प्रातःकाल नित्यक्रियासे निवृत्त होकर जब हम मन्दिरजी पहुँचे तब ८ बजे वो तीनों जीव आये और उत्साहसे कहने लगे कि हम आजसे हिंसा न करेंगे। मैंने प्रश्न किया- क्यों ? उत्तरमें उसने रात्रिकी राम कहानी आनुपूर्वी सुना दी। जिसे सुनकर चित्तमें अत्यन्त हर्ष हुआ और श्री समन्तभद्र स्वामीका यह श्लोक स्मरण द्वारा सामने आगया कि
'सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम् ।
देवा देवं विदुर्भस्मगूढाङ्गारान्तरौजसम् ।।'
हम लोगोंकी यह महती अज्ञानता है कि किसीको सर्वथा तुच्छ, नीच या अधम मान बैठते हैं । न जाने कब किसके काललब्धि आ जावे ? जातिके कहार महाहिंसक, कौन उन्हें उपदेश देने गया कि आप लोग हिंसा छोड़ दो ? जिस लड़कीके उपदेशसे माता-पिता एकदम सरल परिणामी हो गये उस लड़कीने कौनसी पाठशालामें शिक्षा पाई थी ? दस वर्षकी अबोध बालिका में इतनी विज्ञता कहाँसे आ गई ? इतनी छोटी उमरमें तो कपड़ा पहिरना ही नहीं आता, परन्तु जन्मान्तरका संस्कार था, जो समय पाकर उदयमें आगया, अतः हमें उचित है कि अपने संस्कारोंको अति निर्मल बनानेका सतत प्रयत्न करें । इस अभिमानको त्याग देवें कि हम तो उत्तम जाति के हैं, सहज ही कल्याणके पात्र हो जावेंगे। यह कोई नियम नहीं कि उत्तम कुलमें जन्ममात्रसे ही मनुष्य उत्तम गतिका पात्र हो और जघन्य कुलमें जन्म लेनेसे अधम गतिका पात्र हो ! यह सब तो परिणामोंकी निर्मलता और कलुषता पर निर्भर है। ....इस
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org