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________________ धर्मका ठेकेदार कोई नहीं निकला कि तुमने उस जन्ममें बहुत पाप किये, अतः अब ओलोंकी वर्षासे मत डरो और न राम-राम चिल्लाओ । राम हो या न हो, मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं । परन्तु हमारी रक्षा हमारे भाग्यके ही द्वारा होगी । न कोई रक्षक है और न कोई भक्षक है। इस समय मैं आपसे कुछ कहना चाहती हूँ। वह यह कि - यदि तुम इन सब आपत्तियोंसे बचना चाहते हो तो एक काम करो। देखो, तुम प्रति दिन सैकड़ों मछलियोंको मारकर अपनी आजीविका करते हो। जैसी हमारी जान है वैसी ही अन्यकी भी है। यदि तुम्हें कोई सुई चुभा देता है तो कितना दुःख होता है । जब तुम मछलीकी जान लेते हो तब उसे जो दुःख होता है उसे वही जानती होगी। मछली ही नहीं जो भी जीव आपको मिलता है उसे आप नि:शंक मार डालते हैं। अभी परसोंकी ही बात है, आपने एक सर्पको लाठीसे मार डाला। पड़ोसमें बाईजीने बहुत मना किया, पर तुमने यही उत्तर दिया कि काल है, इसे मारना ही उत्कृष्ट है । अतः मैं यही भिक्षा माँगती हूँ कि चाहे भिक्षा माँगकर पेट भर लो, परन्तु मछली मारकर पेट मत भरो । संसारमें करोड़ों मनुष्य हैं, क्या सब हिंसा करके ही अपना पालन-पोषण करते हैं ? 187 लड़कीकी ज्ञानभरी बातें सुनकर पिता एकदम चुप रह गया और कुछ देर बाद उससे पूछता है कि बेटी ! तुझे इतना ज्ञान कहाँसे आया ? वह बोली कि 'मैं पढ़ी लिखी तो हूँ नहीं, परन्तु बाईजीके पास जो पण्डितजी हैं वे प्रति दिन शास्त्र बाँचते हैं। एक दिन बाँचते समय उन्होंने बहुतसी बातें कहीं जो मेरी समझमें नहीं आईं, पर एक बात मैं अच्छी तरह समझ गई । वह यह कि इस अनादिनिधन संसारका कोई न तो कर्ता है, न धर्ता है और न विनाशकर्ता है । अपने-अपने पुण्य-पापके आधीन सब प्राणी हैं। यह बात आज मुझे और भी अधिक जँच गई कि यदि कोई बचानेवाला होता तो इस आपत्तिसे न बचाता ? इसके सिवाय एक दिन बाईजीने भी कहा था कि परको सताना हिंसा है और हिंसासे पाप होता है । फिर आप तो हजारों मछलियोंकी हिंसा करते हैं, अतः सबसे बड़े पापी हुए । कसाईके तो गिनती रहती है पर तुम्हारे वह भी नहीं ।' Jain Education International पिताने पुत्रीकी बातोंका बहुत आदर किया और कहा कि 'बेटी ! हम तुमसे बहुत प्रसन्न हैं और जो यह मछलियोंके पकड़नेका जाल है उसे अभी तुम्हारे ही सामने ध्वस्त करता हूँ।' इतना कहकर उसने गुरसीमें आग जलाई For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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