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________________ मेरी जीवनगाथा 186 हैं। निर्दयताका भी कुछ ठिकाना है ? देखो, हमारे घरके खपरा चूर-चूर हो गये, शिर पर खटाखट ओलोंकी वर्षा पड़ रही है, वस्त्र तक हमारे घरमें पर्याप्त नहीं । कहाँ तक कहा जावे ? न माँके पास दो धोतियाँ हैं और न पिताजीके पास। आप लोग एक ही धोतीसे अपना निर्वाह करते हैं। जब दिन भर मेहनत करते हैं तब कहीं जाकर शामको अन्न मिलता है । वह भी पेटभर नहीं मिलता। पिताजी ! आपने राम-राम जपते अपना जन्म तो बिता दिया पर रामने एक भी दिन संकट में सहायता न दी । यदि कोई राम होते तो क्या सहायता न करते । बगलमें देखो सर्राफजीका मकान है, उनके हजारों मन गल्ला है, अनेक प्रकारके वस्त्रादि हैं, नाना प्रकारके भूषण हैं, दूध आदिकी कमी नहीं है, पास ही में उनका बाग है, जिसमें आम, अमरूद, केला आदिके पुष्कल वृक्ष हैं, जिनसे उन्हें ऋतुके फल मिलते रहते हैं, चार मास तक ईखका रस मिलता है, जिससे खीर आदिकी सुलभता रहती है । यहाँ तो हमारे घरमें अन्नका दाना भी नहीं । दूधकी बात छोड़ो, छाँछ भी माँगेसे नहीं मिलती। यदि मिले भी तो लोग उसके एवज में घास माँग लेते हैं । इस विपत्तिमय जीवनकी कहानी कहाँ तक कहूँ ? अतः पिताजी ! न कोई राम है और न रहीम है । यदि कोई राम-रहीम होता तो उसके दया होती और वह ऐसे अवसरमें हमारी रक्षा करता । यह कहाँका न्याय है कि पड़ोसवालेकी लाखोंकी सम्पत्ति और हम लोगोंको उदर भर भोजनके भी लाले । यद्यपि मैं बालिका हूँ । पढ़ी लिखी नहीं कि किसी आधारसे बात कर सकूँ । परन्तु आपकी इस विपत्तिसे इतना अवश्य जानती हूँ कि जो नीम बोवेगा उसके नीमका ही पेड़ होगा और जब वह फलेगा तब उसमें निवोरी ही होगी। जो आमका बीज बोवेगा उसके आम ही का फल लगेगा। जैसा बीज पृथ्वी मातामें डाला जावेगा वैसा ही माता फल देवेगी । पिताजी ! आपने जन्मान्तरमें कोई अच्छा कार्य नहीं किया, जिससे कि तुम्हें सुखकी सामग्री मिलती और न मेरी माताने कोई सुकृत किया, अन्यथा ऐसे दरिद्रके घर इनका विवाह नहीं होता। यह देखनेमें सुन्दर है, इसलिये कमसे कम अच्छे घरानेकी बहू बेटियाँ इन्हें घृणाकी दृष्टिसे नहीं देखती ... यह इनके कुछ सुकृतका ही फल है। मैं भी अभागिनी हूँ, जिससे कि आपके यहाँ जन्मी । न तो मुझे पेट भर दाना मिलता है और न तन ढकनेको वस्त्र ही । जब मैं माँके साथ अच्छे घरोंमें जाती हूँ तब लोग दयाकर रोटीका टुकड़ा दे देते हैं। बहुत दया हुई तो एक आधा फटा-पुराना बेकाम वस्त्र दे देते हैं। इससे यह निष्कर्ष Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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